सैयद सलमान
मुंबई
मुसलमानों के दो बड़े त्योहार हैं। एक है ईद-उल-फित्र, जो एक महीने के रोजे के बाद मनाया जाता है और दूसरा है ईद-उल-अजहा, जिसे ‘कुर्बानी’ का त्योहार कहा जाता है। इस वर्ष इसी त्याग और बलिदान के पर्व को कुछ जाहिल मुसलमानों ने विवादित बना दिया। इनमें से एक मामला नई मुंबई का है, जहां ईद-उल-अजहा से पहले एक बकरे पर ‘राम’ लिखकर हिंदू भाइयों की भावनाएं आहत की गर्इं। दुकान के दो मालिकों मोहम्मद शफी शेख और साजिद शफी शेख सहित दुकान के कर्मचारी कय्यूम के विरुद्ध धार्मिक भावनाएं भड़काने की धाराओं में मामला दर्ज कर लिया गया। एक अन्य घटना में जावेद नामी शख्स ने हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में ईद-उल-अजहा पर गोवंश की कुर्बानी करते हुए व्हॉट्सऐप पर स्टेटस लगा दिया। जाहिर है, गाय को माता मानने वाले बिरादरान-ए-वतन की भावनाएं आहत होंगी। बदले में उन्होंने जावेद की दुकान में तोड़-फोड़ की और उसका सारा सामान फेंक दिया। जावेद के खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया।
इस तरह की कुछ और घटनाएं अखबारों और टीवी मीडिया पर तो नहीं, लेकिन सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुर्इं। कुछ का संबंध बाहरी मुल्कों से भी था, जिसे अपने यहां का बताकर माहौल को तनावपूर्ण बनाने की कोशिश हुई। लेकिन जो गलत है, वह गलत है। जिन लोगों ने भी हिंदू भाइयों की भावनाओं के साथ खेलने की कोशिश की, उन पर सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसे धर्मांध और जाहिल तत्वों के कृत्यों के लिए उन मौलवियों को भी सजा मिलनी चाहिए जो गैर-जरूरी फतवे जारी करते हैं। मिसाल के तौर पर गुजरात के भरूच स्थित दारुल उलूम बरकत ख्वाजा के मौलवी अब्दुल रहीम राठौड़ ने सोशल मीडिया पर कहा कि ‘इस्लाम में गाय की कुर्बानी जायज है।’ कौन पूछने गया था उससे कि क्या जायज है, क्या नाजायज है? सांप्रदायिक शांति भंग करने का इस व्यक्ति को किसने हक दिया? इस्लाम कहता है कि आप जिस भी वतन के नागरिक हैं वहां का कानून मानना आप पर लाजिम है। हमारे देश में केवल गाय ही नहीं, बल्कि गोवंश की हत्या पर ही अगर पाबंदी है, तो यह जायज और नाजायज का प्रश्न ही क्यों उठाया गया? मौलवी के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है। देश में जब विभाजनकारी शक्तियां अपने उफान पर हैं, तब ऐसे समय में बजाय देश की एकात्मता और सांप्रदायिक सौहार्द की रक्षा करने के ये लोग धर्मांध शक्तियों को र्इंधन प्रदान कर रहे हैं। यह केवल नामधारी ‘मुसलमान’ हैं, इनका ‘इस्लाम’ से कोई वास्ता नहीं है। इनकी करतूतों से आम मुसलमान शर्मिंदा होता है। मुस्लिम उलेमा और तमाम बुद्धिजीवी मुसलमान अगर अन्य सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ बोलते हैं, तो अपने धर्म की धर्मांध शक्तियों के खिलाफ भी उन्हें बोलना होगा।
जहां तक बात ईद-उल-अजहा की है, तो इस दिन कुर्बानी देने का रिवाज हजरत इब्राहिम के दौर से चला आ रहा है। यहूदी, ईसाई और मुसलमान उनकी इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में पैदा होनेवाले लोग पैगंबर इब्राहिम के ही वंशज हैं और उन्हें ईशदूत मानते हैं। हजरत इब्राहिम को अपने बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी देने का ख्वाब आया था और फिर उनकी जगह ईश्वरीय चमत्कार से दुंबा रख दिया गया था। तब से उनकी याद में कुर्बानी देता आ रहा मुसलमान पूरा ढिंढोरा पीटते हुए कुर्बानी का प्रदर्शन करता है। हालांकि, हदीसों के अनुसार पैगंबर मोहम्मद साहब का फरमान है कि ‘जानवर की कुर्बानी अकेले में की जानी चाहिए अन्य जानवरों की मौजूदगी में नहीं।’ यहां जानवरों को तो छोड़िए, खुलेआम कुर्बानी की जाती है और सोशल मीडिया पर पोस्ट भी की जाती है। जबकि प्रबुद्ध इस्लामी उलेमा हर साल यह अपील करते रहते हैं कि कुर्बानी सादगी से की जाए, साफ-सफाई रखी जाए, अन्य धर्मावलंबियों की भावनाओं का खास खयाल रखा जाए, लेकिन मुसलमानों में जाहिलियत इतनी घर कर गई है कि धर्म के नाम पर किए जा रहे तमाम फूहड़पन को ही असल धर्म मान लिया गया है। क्या मुसलमानों को यह नहीं समझता कि अल्लाह सबके दिल का हाल जानता है और जानता है कि कुर्बानी देनेवाले की मंशा क्या है? कुरआन कहता है, ‘अल्लाह तक खून, मांस या हड्डियां नहीं पहुंचतीं, केवल विनम्रता, देने का जज्बा, धर्मनिष्ठता और मन की पवित्रता पहुंचती है (२२:३७- अल-कुरआन)।’ ईद उल अजहा पर कुर्बानी का मतलब दूसरों के लिए किया गया त्याग और बलिदान है। किसी मुसलमान को किसी की भावना से खेलने का कोई हक नहीं है। कुर्बानी एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। पशुबलि या कुर्बानी केवल प्रतीकात्मक है। धर्म के नाम पर संवेदनहीन प्रदर्शन असल इस्लामी दृष्टिकोण से पूर्णत: अनुचित एवं अक्षम्य है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)