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इस्लाम की बात : इज्तेमा में जाएं मगर सीखकर अमल भी करें

सैयद सलमान मुंबई

इज्तेमा सिर्फ मजमा नहीं
पिछले दिनों मुंबई के आजाद मैदान पर अहले सुन्नत-वल-जमात की तरफ से इज्तेमा का आयोजन हुआ था। जहां इस्लाम की सीख और दीन से जुड़ी बातों पर चर्चा हुई। लाखों का मजमा लगा। आगामी ३१ जनवरी से २ फरवरी तक खारघर में तब्लीगी जमात का इज्तेमा है। तब्लीगी जमात अपने इज्तेमे के लिए विख्यात है। यहां भी लाखों का मजमा लगेगा। कुरआन और हदीस के हवाले से बातें होंगी, दुआएं होंगी और लोग अपने घरों को लौट जाएंगे। सवाल यह है कि क्या इन इज्तेमा से मुसलमान कुछ सीखते हैं? या किस्से कहानियां समझकर सुनकर फिर उसी ढर्रे पर चल पड़ते हैं। इज्तेमा एक प्रकार का सत्संग है जहां मुस्लिम उलेमा और बुद्धिजीवी अपनी बातें रखते हैं, इस्लाम की खूबियां बयान करते हैं।
इस्लाम की अच्छाइयों पर चर्चा करने से पहले, यह महत्वपूर्ण है कि हम इस्लाम के मूल सिद्धांतों और उसके सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक योगदान को समझें। इस्लाम केवल एक धार्मिक विश्वास ही नहीं है बल्कि यह एक संपूर्ण जीवन प्रणाली है, जो मानवता के लिए अनेक सकारात्मक पहलुओं को पेश करती है। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को सच्चाई और ईमानदारी का पालन करने का आदेश दिया है। यह न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि समाज में भी एक सकारात्मक माहौल बनाने में सहायक होता है। इस्लाम में सहानुभूति और दया का विशेष महत्व है। मुसलमानों को अपने पड़ोसियों, जरूरतमंदों और अनाथों की मदद करने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है। इस्लाम में ऐसे कार्यों को बहुत महत्व दिया जाता है, जो निरंतर लाभ पहुंचाते हैं। जैसे वृक्षारोपण, शैक्षणिक संस्थान खोलना और अस्पताल स्थापित करना। ये कार्य न केवल समाज के लिए लाभकारी होते हैं बल्कि उन्हें सदका-ए-जारिया की श्रेणी में रखा जाता है। इस्लाम ने सामाजिक न्याय की स्थापना पर जोर दिया है। यह सभी मनुष्यों के अधिकारों का सम्मान करता है और भेदभाव के खिलाफ खड़ा होता है। इस्लामिक शिक्षाएं सिखाती हैं कि एक-दूसरे के प्रति सम्मान और न्याय का व्यवहार करना चाहिए। इस्लाम व्यक्ति को आत्मा की शांति और मानसिक संतुलन प्रदान करता है। इस्लाम में सामुदायिक जीवन का बहुत महत्व है। मुसलमानों को एकजुट होकर काम करने और एक-दूसरे की मदद करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इससे समाज में भाईचारा और सहयोग की भावना बढ़ती है।
सकारात्मक बदलाव जरूरी
इस्लाम में पर्यावरण की सुरक्षा पर भी जोर दिया गया है। वृक्षारोपण और जल संरक्षण जैसे कार्यों को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस्लाम में सामाजिक कार्यों का महत्व अत्यधिक है और मुसलमानों को समाज के लिए कई प्रकार के कार्य करने की प्रेरणा दी जाती है। जैसे की जकात। जकात एक अनिवार्य दान है, जिसे हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को अपने धन का २.५ प्रतिशत निर्धन और जरूरतमंद लोगों को देना होता है। यह न केवल गरीबों की मदद करता है, बल्कि समाज में आर्थिक समानता और सामंजस्य भी स्थापित करता है। इस्लाम शिक्षा पर बहुत जोर देता है। मुसलमानों को चाहिए कि वे शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दें, जैसे कि स्कूल और कॉलेज खोलना या गरीब बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाना। मुसलमानों को स्वास्थ्य सेवाओं में योगदान देना चाहिए, जैसे कि अस्पतालों का निर्माण करना या चिकित्सा सहायता प्रदान करना। इस्लाम में वृद्धों और अनाथों की देखभाल का विशेष महत्व है। मुसलमानों को चाहिए कि वे इन वर्गों की देखभाल करें, उन्हें आवश्यक सहायता प्रदान करें और उनके अधिकारों की रक्षा करें। इन कार्यों के माध्यम से मुसलमान न केवल अपने धर्म का पालन कर सकते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
अमली जामा कब?
लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख चिंताजनक है। कभी गौर कीजिएगा, गंदी सड़कों पर अल्लाह के नाम वाली पट्टियां, झंडे और बोर्ड देखे होंगे। ऊपर अल्लाह का नाम, नीचे गंदी नाली। लोग गर्मी से मर रहे हैं, लेकिन पेड़ लगाने के बजाय वे दरगाह पर पुष्पांजलि अर्पित करने जाते हैं। सैकड़ों चादरें चढ़ाई जाती हैं। हालांकि, इस से मना करने का किसी को हक़ नहीं, लेकिन याद तो दिलाया जा सकता है कि इस्लाम में सदका-ए-जारिया यानी ऐसा दान जो निरंतर और निर्बाध जारी रहे उसको बड़ा महत्व दिया गया है। वृक्षारोपण करना, शैक्षणिक संस्थान खुलवाना, जल की व्यवस्था करवाना, मुसाफिरखाना बनवाना, अनाथालय बनवाना, अस्पताल खुलवाना जैसे कई काम हैं जिन्हें सदका-ए-जारिया की श्रेणी में रखा जा सकता है। हर हाथ को रोजगार देकर मुसलमानों की ग़ुरबत दूर की जा सकती है। अपने वतन-ए-अजीज से मोहब्बत को निस्फुल ईमान यानी आधा ईमान कहा गया है, लेकिन कितने लोग हैं जो इस बात को गंभीरता से लेते हैं। इज्तेमे में जाना और प्रवचन सुनकर आना एक बात है, उन बातों पर अमल करना दूसरी बात। काश मुसलमान इन बातों को समझ पाता।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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