मुख्यपृष्ठस्तंभइस्लाम की बात : हठी सरकार और बेचैन मुस्लिम समाज

इस्लाम की बात : हठी सरकार और बेचैन मुस्लिम समाज

सैयद सलमान मुंबई

संवैधानिक अधिकारों पर हमला
हिंदुस्थान जैसे बहु-सांस्कृतिक और बहु-धार्मिक देश में सामाजिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा हमेशा से एक चुनौती रही है। पिछले ११ वर्षों से मुसलमानों से संबंधित मुद्दों को उठाकर और उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक महसूस कराकर इस चुनौती का समाधान ढूंढ़ा जा रहा है। जाहिर है कि इस से ध्रुवीकरण होगा और सत्ता में बने रहना आसान हो जाएगा। मुख्य मुद्दों पर बात करना अब देशद्रोह की श्रेणी में आ गया है। हाल के दिनों में वक्फ संशोधन बिल और कुछ अन्य मुद्दों ने मुस्लिम समुदाय के बीच बेचैनी, नाराजगी और चिंता को जन्म दिया है। वक्फ संशोधन बिल में वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और नियंत्रण को लेकर बदलाव लाने का प्रस्ताव है। इसके साथ ही इसमें मुस्लिम समाज के कुछ बुनियादी हक और संवैधानिक आजादियों पर सवाल भी उठाया गया है। इसी के साथ-साथ अस्पतालों में मुसलमानों के लिए अलग विंग की मांग, अपनी छतों पर नमाज पढ़ने पर पाबंदी, खान-पान पर अंकुश और हिजाब जैसे अनेक मुद्दों को लेकर बढ़ती बहस ने इस धारणा को बल दिया है कि देश में एक मुस्लिम-विरोधी मानसिकता पनप चुकी है, जिसे सरकारी समर्थन प्राप्त हो रहा है।
वक्फ संशोधन बिल के मूल में वक्फ बोर्ड के अधिकारों में कटौती और इसकी संरचना में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने का प्रस्ताव है। सरकार का तर्क है कि इससे पारदर्शिता आएगी और वक्फ संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन होगा। लेकिन मुस्लिम संगठनों, खासकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित विपक्ष का कहना है कि यह बिल धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों पर हमला है। सदियों से मुस्लिम समुदाय द्वारा दान की गई वक्फ संपत्तियां, उनकी धार्मिक और सामाजिक पहचान का हिस्सा हैं और गरीबों और जरूरतमंदों की भलाई के लिए भी समर्पित हैं। ऐसे में इस बिल को लेकर कई ठिकानों पर मुस्लिम समाज का शांतिपूर्ण विरोध, जैसे ‘अलविदा जुमा’ पर काली पट्टी बांधकर नमाज पढ़ना यह संकेत देता है कि यह मुद्दा उनके लिए कितना संवेदनशील है।
ये कैसी रणनीति?
इसके अलावा कुछ अन्य मांगें और प्रतिबंध भी चर्चा में हैं, जो मुस्लिम समुदाय की चिंताओं को और गहरा रहे हैं। अस्पतालों में मुसलमानों के लिए अलग विंग की मांग उनमें से एक है। यह मांग एक भाजपा महिला विधायक ने रखी है। सोशल मीडिया और कुछ राजनीतिक मंचों पर इसे लेकर बहस छिड़ी हुई है। यह मांग कहीं न कहीं सामाजिक अलगाव को बढ़ावा देनेवाली मानी जा रही है। दूसरी ओर, अपनी छतों पर नमाज पढ़ने पर पाबंदी की बात ने भी तूल पकड़ा है। यह मुद्दा खासतौर पर तब गरमाया, जब कुछ राज्यों में सड़कों पर नमाज पढ़ने पर रोक की बात उठी, जिसे अब निजी स्थानों तक बढ़ाने की चर्चा हो रही है। यह एक ऐसा कदम है जो धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सीधे चुनौती देता है। खान-पान पर अंकुश और हिजाब जैसे मुद्दे भी इस संदर्भ में कम विवादास्पद नहीं हैं। हाल के वर्षों में मांसाहार को लेकर हिंसक घटनाएं और भाजपा शासित राज्यों में हिजाब पर प्रतिबंध की मांग ने मुस्लिम समुदाय को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि उनकी सांस्कृतिक पहचान और जीवनशैली पर व्यवस्थित हमला हो रहा है। जब सरकार या उसके समर्थक इन मुद्दों पर सख्त रुख अपनाते हैं तो यह धारणा मजबूत होती है कि यह सब एक खास मानसिकता का हिस्सा है, जिसका मकसद मुस्लिम समाज को हाशिए पर धकेलना है।
खुली चर्चा क्यों नहीं?
मुस्लिम समाज की यह बेचैनी और नाराजगी बेवजह नहीं है। संविधान का अनुच्छेद २५ और २६ हर नागरिक को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता और प्रथाओं को बनाए रखने का अधिकार देता है, लेकिन जब इन अधिकारों पर बार-बार सवाल उठते हैं तो स्वाभाविक रूप से असुरक्षा की भावना पैदा होती है। सरकार का दावा है कि वक्फ संशोधन बिल का मकसद सुधार और पारदर्शिता है, न कि किसी समुदाय को निशाना बनाना। लेकिन जब इस तरह के कदमों के साथ-साथ अन्य संवेदनशील मुद्दे भी साथ-साथ उठते हैं तो यह संदेश जाता है कि शायद यह सब एक बड़ी रणनीति का हिस्सा है। इस स्थिति में सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि वे इस बढ़ते तनाव को कम करें। सरकार को चाहिए कि वह मुस्लिम समुदाय के साथ संवाद बढ़ाए और उनकी चिंताओं को गंभीरता से ले। वहीं विपक्ष और नागरिक समाज को भी चाहिए कि वे इस मुद्दे को केवल राजनीतिक रंग न दें, बल्कि रचनात्मक समाधान सुझाएं। देश की असल ताकत उसकी विविधता में है और इसे बनाए रखने के लिए हर समुदाय के साथ न्याय और सम्मान का व्यवहार जरूरी है। मुस्लिम समाज से जुड़े मूलभूत मुद्दों पर खुली चर्चा और संवेदनशीलता ही इस बेचैनी को दूर कर सकती है। लेकिन क्या वर्तमान सरकार से इसकी अपेक्षा की जा सकती है? जवाब शायद हर किसी को पता है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक और देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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