पिछले ३० वर्षों से बॉलीवुड पर राज कर रहे साधारण शक्ल-सूरत और आम डील-डौल वाले मनोज बाजपेयी ने यह साबित कर दिखाया कि भले ही वे कन्वेंशनल हीरो की परिभाषा में ठीक नहीं बैठते हों, लेकिन अपनी परफॉर्मेंस की बदौलत उन्होंने अपना सिक्का जमाया है। ३० वर्षों के करियर में फिल्म ‘भैयाजी’ उनकी सौवीं फिल्म है। पेश है, मनोज बाजपेयी से पूजा सामंत की हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
-करियर की सौवीं फिल्म ‘भैयाजी’ करके आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
फिल्म ‘भैयाजी’ के निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की के साथ मैंने फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ की थी, जिसे काफी पसंद किया गया। इस पीढ़ी के डायरेक्टर अपूर्व सिंह ने न जाने कैसे पता कराया कि ‘भैयाजी’ मेरी सौवीं फिल्म होगी। इसी खोजबीन में उन्हें पता चला कि मेरे करियर को ३० वर्ष हो गए हैं। कहानी में अपूर्व ने सीधे-साधे आदमी का व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष दिखाया है। फिल्म में मेरा किरदार लार्जर देन लाइफ लगा, तो मैं यह फिल्म नहीं करना चाहता था। मेरे दिमाग में था कि मैं कमर्शियल सिनेमा के ढांचे में फिट नहीं हूं, लेकिन निर्देशक की जिद के आगे मैंने खुद को सरेंडर कर दिया और उनकी जबरदस्त इच्छाशक्ति के कारण यह फिल्म बन पाई।
– सुना है, आपने निर्देशक से यहां तक कह दिया कि उनको किसी दूसरे एक्टर से मिला देते हैं?
‘भैयाजी’ में मेरा किरदार बड़ा डिमांडिंग है। अपने दुश्मनों से हीरो के काफी फाइटिंग सीन हैं। इस कदर फिजिकल डिमांडिंग सीन मैंने कभी नहीं किए। किसी एक्शन इमेज वाले हीरो को लेना बेहतर होगा। अपूर्व ने कहा, आप यह फिल्म नहीं करोगे तो मैं यह फिल्म नहीं करूंगा। अगर आप यह फिल्म करेंगे तो यह असाधारण फिल्म होगी। एक्शन हीरो मारधाड़ करता है तो बड़ी बात नहीं, लेकिन मनोज बाजपेयी मारपीट करते हैं तो यह अलग और बड़ी बात होगी। निर्देशक का पैशन और दृढ़ विश्वास देखकर मैं इस फिल्म को करने को तैयार हुआ।
-सुना है आपने बॉडी डबल का इस्तेमाल नहीं किया?
मैंने ९८ प्रतिशत शॉट्स खुद किए हैं क्योंकि निर्देशक बहुत ही नेचुरल शॉट्स चाहते थे। एस. विजन जो साउथ के विजनरी एक्शन डायरेक्टर हैं, उन्होंने इसे निर्देशित किया है। साउथ की सभी बड़ी फिल्मों और स्टार्स के साथ उन्होंने काम किया है। सिर्फ घूंसे मारना और गन चलाना ही एक्शन नहीं होता। उन्होंने मुझसे खतरनाक और रिस्की शॉट्स करवाए। हर दिन सेट पर हनुमान चालीसा पढ़कर मैं जाया करता था।
-अपनी उपलब्धियों का क्रेडिट आप किस्मत को देना चाहेंगे या मेहनत को?
मैं खुद को उतना लकी नहीं मानता। किस्मत तभी साथ देती है जब इंसान मेहनत करे। हां, करियर में मैं कभी आगे बढ़ा तो कभी पिछड़ गया। हिट-फ्लॉप के बारे में सोचे बिना काम करता गया। निर्देशकों की वजह से मुझे काम और अच्छा किरदार मिलता रहा।
-कोई ऐसा निर्देशक जिसकी बदौलत आपके करियर में चार चांद लग गए?
रामगोपाल वर्मा! मैं उन्हें गॉडफादर मानता हूं। फिल्म ‘सत्या’ के कारण मैं लाइमलाइट में आया। मुझे अपना पहला नेशनल अवॉर्ड ‘सत्या’ ने दिलाया। उन्होंने मुझ पर बहुत विश्वास दिखाया, मेरे लिए इतना काफी है।
-आपका पारंपरिक हीरो का लुक्स न होना आपके लिए कैसा रहा?
इंडस्ट्री में नाना पाटेकर पहले ऐसे सितारे थे जिनके पास ट्रेडिशनल हीरोनुमा यानी चिकना-चुपड़ा चेहरा नहीं था, लेकिन उनका भाग्य और उनकी कला उन्हें ऐसे स्थान पर ले गई जहां पहुंचने की कोई सोच भी नहीं सकता। खैर, जब अमिताभ बच्चन आए थे तब उनके बारे में भी यही कहा गया कि वो पारंपरिक गुड लुकिंग एक्टर की श्रेणी में नहीं आते। हर पीढ़ी में कोई न कोई ऐसा कलाकार रहा जिसने पारंपरिक गुड लुक्स की परिभाषा को तोड़ा है।