भरतकुमार सोलंकी
जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर कई मान-सम्मान और अभिनंदन पत्र मुझे भी मिले हैं। लेकिन समय के साथ जब मुझे यह समझ में आया कि इन पत्रों का वास्तविक जीवन में कोई मूल्य नहीं है, तो इनसे एक अजीब सी नफरत होने लगी। ऐसा लगने लगा जैसे ये सिर्फ कागज़ के टुकड़े हैं, जिनका हमारे कर्मों, उपलब्धियों और सच्चे योगदान से कोई लेना-देना नहीं है।
आजकल, यह और भी स्पष्ट हो गया हैं कि सम्मान और अभिनंदन पत्रों का बाजार बन चुका है। खुलेआम पैसों से ये सम्मान बेचे और खरीदे जा रहे हैं। यह देखकर मन प्रश्न हो उठता है—जिस चीज़ की बोली लगाई जा रही हो, उसकी असलियत क्या हो सकती है? नीलामी में बिकते हुए सम्मान पत्र क्या उस व्यक्ति के योगदान को दर्शाते हैं, या केवल उसकी आर्थिक हैसियत को?
यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। सम्मान का असली अर्थ तब होता है जब वह बिना किसी आर्थिक लेनदेन या दिखावे के दिया जाए। जब यह समाज के द्वारा किसी के सच्चे योगदान की पहचान हो, तब इसका मूल्य होता है। लेकिन जब यह सम्मान केवल पैसे और प्रभाव के दम पर हासिल किया जाए, तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता।
आज के समय में, सम्मान पत्र केवल दिखावे का एक साधन बन गए हैं। जब खुले बाजार में इनकी बोली लगाई जाती है, तो उस सम्मान का क्या मूल्य रह जाता है? वास्तविक सम्मान तो उस व्यक्ति के कर्मों और समाज के लिए उसके योगदान में होता है। सम्मान को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता, और अगर यह खरीदा जा रहा है, तो यह वास्तव में सम्मान नहीं, बल्कि केवल एक दिखावा है।
इसलिए, अब मुझे इन अभिनंदन पत्रों से कोई लगाव नहीं रह गया है। सम्मान असली होता है, जब वह समाज के दिल से आता है, न कि किसी नीलामी की बोली से।