बीती हुई घड़ियां

वक्त मेहरबान था
हर कोई अपने शहर का शहजादा था
मेरे शहर की मिटटी मुझे पुकारे
मेरे शहर की हरीयाली मुझे सुहाए
अपनी गलियों चौबारे पर
खड़े देख रही मेरी छाऊं
कितना बदल गया चारों तरफ मौसम
नामों-निशान नहीं मेरी उस सर जमीं का
जिस पर रखे थे हमने बचपन में अपने कदम
मुझे याद आता है वो दिन पुराना
खीर भवानी मंदिर जाना
तुलमूल माता की स्वादिष्ट लुचियां खाना
ऊंची पहाड़ी पर हारी पर्वत और शंकराचार्य
बर्फीली हवा में फेहरन पहन कर जाना
चश्मेशाही का ठंडा मिठास भरा पानी
याद दिलाता है पुरानी जिंदगानी
बत्तखें तालाब में तैरती थीं
मांजी की हाउस बोट डल झील में
अपने सुर में चलती थी
मातामाल की कअनी पर चढ़ जाना
थिरकती ठंडी हवा के नगमे सुनते रहना
आंगन की कुश की घास से खेलना
बर्फ के ढेले के भूत बनाना
फेरन में कांगड़ी खोसू में चाय पीतल के बर्तन
याद आते हैं हमें हर पल
पुराना नक्शा वो सब सामने आ गया
गहरे घाव को हरा कर गया।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

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