मुख्यपृष्ठसंपादकीयश्रेय की सेंधमारी...‘सत्ता की बारी' आखिरी है!

श्रेय की सेंधमारी…‘सत्ता की बारी’ आखिरी है!

लाखों वैष्णवों का मेला बड़े ही भक्तिभाव में पंढरी की ओर आगे बढ़ रहा है और यहां राज्य में सत्तारूढ़ दल बजट के प्रावधानों का श्रेय ले रहे हैं। दरअसल, कोई भी बजट सरकार का होता है, जिसका पार्टी श्रेय न लेने के ही संकेत होते हैं; लेकिन जो पार्टी सारी शर्तों और नीति-नियमों को ताक पर रखकर सत्ता में आई है, उससे हम संसदीय संकेतों, परंपराओं और राजनीतिक नैतिकता का पालन करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? राज्य का कामकाज संभालने के बाद से ‘तिघाड़ी सरकार’ सभी संकेतों को कुचल रही है। सदन के सार्वभौम अधिकारों का घोर उल्लंघन कर रही है। (जैसे उनके गुरु मोदी दिल्ली में व्यवहार कर रहे हैं, वैसे ही उनके असंवैधानिक सरकारी चेले महाराष्ट्र में व्यवहार कर रहे हैं।) एक सरकार के रूप में लिए गए निर्णयों पर पार्टी श्रेय का लेबल लगाने के लिए जबरदस्त खींच-तान चल रही है। राज्य के बजट के प्रावधानों और योजनाओं के संदर्भ में भी ‘बिगाड़ी’ सरकार की ‘तिघाड़ी’ में यही खेल शुरू हो गया है। जो योजनाएं मुख्यमंत्री के नाम पर हैं, वे जैसे ‘मिंधे’ गुट की ही हैं, इस तरह की प्रसिद्धि पाने की छटपटाहट शुरू है। इस बजट ने किस तरह जनहित को साधा है, इसका पहाड़ा भाजपावाले ही कहते हैं कि १० जुलाई तक जनता के सामने पढ़ा जाएगा। सत्ता का तीसरा गुट भी ‘जीत’ भी मेरी ‘पट’ भी मेरी के जोश में जनता को इसकी जानकारी देगा कि वैâसे उनके नेताओं ने वित्त मंत्री के रूप में लोकाभिमुख फैसले लिए। बजट खोखला है, तब भी तीनों सत्ताधारी दल ये हमारा ही श्रेय है, ऐसा कहते हुए एक-दूसरे पर ताल ठोक रहे हैं। ये सभी योजनाएं जनहित की हैं, लोगों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली हैं, ऐसा इन मंडलियों का खोखला दावा है। क्या वो सचमुच वैसी हैं? उनका सीधा फायदा लोगों को क्या सच में मिलेगा? ऐसे कई प्रश्न अनुत्तरित हैं, फिर भी उसे लेकर खोखली खनखनाहट शुरू है। मूलत: बजट में हुई कई घोषणाओं की स्थिति ‘कुएं में पानी नहीं, तो घड़े में कैसे आएगा’ वाली है। राज्य के आधे जिलों में अभी तक बारिश नहीं हुई है; लेकिन बजट में सूखी घोषणाओं की वर्षा की गई। जुमलों की बाढ़ और झूठे आश्वासनों की अतिवृष्टि की गई। इन्हीं झूठे और जुमलेबाज आश्वासनों के गुब्बारों में श्रेय की हवा भरने का उद्योग सत्तापक्ष में चल रहा है। पिछले ढाई साल में राज्य की ‘लाड़ली बहनों’ को यह सरकार भूल गई थी। लेकिन लोकसभा चुनाव के झटके से उन्हें अचानक ‘बहनों’ की हिचकी (याद) आ गई। यहीं से ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिण’ (मुख्यमंत्री मेरी लाडली बहना) के नाम से एक योजना की बजट में घोषणा की गई। अच्छा, प्यारी बहनों की चिंता किसे करनी चाहिए? तो जिस भाई ने बारामती में प्यारी बहन की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाए इसके लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ी उसने? फिर, इन प्यारी बहनों के हजारों भाई पुणे-नासिक में नशे के दलदल में पाए गए हैं। कई किसान भाइयों के आज भी आत्महत्या करने के कारण उन भाइयों के लिए बहनें आक्रोश कर रही हैं। उन भाइयों को तो सरकार ने बेसहारा ही छोड़ दिया है। फिर भी बहनों के नाम पर यह जुमलेबाजी करने का दुस्साहस सत्ताधारी कर रहे हैं। हालांकि ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिण’ योजना आकर्षक है, लेकिन राज्य की लाखों बहनें अनगिनत नियमों और शर्तों की उलझन को कैसे सुलझा पाएंगी? यह प्रश्न है। इसके अलावा महंगाई की आग आपने ही भड़काई है। ऐसे में आपकी बमुश्किल डेढ़ हजार की ‘फूंक’ बहनों को कितनी राहत दे पाएगीr? ये भी एक सवाल है। इन सवालों का जवाब देने के बजाय सत्ताधारी दल श्रेय ले रहे हैं और अपनी छाती पीट रहे हैं। लोकसभा की ही तरह कल के विधानसभा चुनाव में भी जनता आपको हमेशा के लिए सत्ता से ‘अनाथ’ करनेवाली है। बजट की योजनाओं का कितना भी श्रेय ले लें, आपकी ये ‘सत्ता की बारी’ आखिरी ही है।

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