कुंवर चांद खां
नेतरहाट (झारखंड) में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, ‘राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जो आदिवासी हैं, को संसद की नई बिल्डिंग के उद्घाटन या राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिए आमंत्रित क्यों नहीं किया गया था? पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो कि दलित हैं, को नई संसद की बिल्डिंग के लिए नींव रखने के समारोह में आमंत्रित क्यों नहीं किया गया था? …मुझे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिए निमंत्रण मिला था, लेकिन मैं अपमानित होने के डर से वहां नहीं गया, वहां मेरे जाने के बाद प्रांगण का शुद्धीकरण करते, क्योंकि मैं दलित हूं और फिर मुझे मूर्ति के निकट तक भी जाने नहीं देते …और फिर आप (नरेंद्र मोदी) ने एक आदिवासी महिला को या एक दलित पुरुष को राष्ट्रपति बनाया। आपने उन्हें आमंत्रित इसलिए नहीं किया, क्योंकि आपने सोचा कि आप अपवित्र हो जाएंगे।’
मल्लिकार्जुन खड़गे के इस भाषण की व्याख्या अनेक तरह से की जा सकती है। एक वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा निरंतर दोहराये जानेवाले आरोप का जवाब दे रहे थे कि विपक्ष ने अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में हिस्सा नहीं लिया। दूसरा यह कि जिस तरह मोदी राम मंदिर के नाम पर वोट मांगने का प्रयास कर रहे हैं, उसी तरह मल्लिकार्जुन खड़गे दलितों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी के साथ जाने पर उन्हें अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण है तीसरा कारण। एक समय था जब ब्राह्मण, दलित व अल्पसंख्यक कांग्रेस के कोर मतदाता हुआ करते थे, समय के साथ यह मतदाता अलग-अलग दिशाओं में चले गए और कांग्रेस कमजोर हो गई। १९९० के दशक में उत्तर प्रदेश में दलितों का राजनीति में बोलबाला हुआ, जोकि दलित नेतृत्व वाली राजनीतिक पार्टी के इर्द-गिर्द विकसित हुई। इसका प्रभाव पंजाब सहित पूरे हिंदी पट्टी पर पड़ा।
अब यह दलित राजनीति सामाजिक न्याय व आर्थिक प्रगति के लिए विस्तृत मांगें रख रही है, विशेषकर गरीब दलितों में। मायावती व उनकी बसपा इन आर्थिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में असफल रही है, जिससे उनके विरुद्ध असंतोष है और यही वजह है कि दलित एक नए सियासी घर व नेता की तलाश में हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे इसी खालीपन को भरना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले कुछ चुनावों के दौरान मायावती के प्रति असंतोष के कारण बसपा की पकड़ दलितों पर कमजोर पड़ी है।
बसपा से मोहभंग होने के बाद उत्तर प्रदेश में जो सबसे प्रमुख दलित गुट उभरा वह चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी है। भीम आर्मी का गठन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में २०१५ में हुआ और उसने २०२० में अपना सियासी दल आजाद समाज पार्टी के नाम से गठित किया। चंद्रशेखर जाटव हैं, वकील हैं, मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और आंबेडकर के भक्त हैं। वह नई दलित राजनीति का प्रोडक्ट हैं, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि दलितों में संविधान बदलने व आरक्षण खत्म करने का जबरदस्त खौफ है। इस डर को इंडिया एलायंस के साथ चंद्रशेखर ने भी भुनाने का प्रयास किया है। अगर चंद्रशेखर को सफलता मिलती है, तो उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में जबरदस्त मोड़ आ जाएगा, तब शायद दलितों को अपने लिए एक नया सियासी घर भी मिल जाए।
(लेखक पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)