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ये सियासत है कि लानत है…

राजेश विक्रांत

सदा अंबालवी का एक शेर है- ये सियासत है कि लानत है सियासत पे ‘सदा’, खुद हैं मुजरिम बने कानून बनाने वाले। लगता है कि यही आजकल की सरकार का यूएसपी बन गया है। बात राज्य की तकरीबन ७० हजार आशा कार्यकर्ताओं की हो रही है। जिनके न उचित मानदेय का ठिकाना है, न अन्य सुविधाओं की। ५,००० कार्यकर्ताओं ने पहले ठाणे में डेरा डाला फिर वे पहुंची आजाद मैदान। मुद्दा ये है कि सरकार एक जीआर को लागू कर उनका मानदेय बढ़ाए। पर चौपट राजा राजनीति में व्यस्त हैं। उन्हें आशा नीति से क्या लेना देना। वे फिलहाल सभी वादे भूल गए हैं। उन्हें एक ही वादा याद है हर कीमत पर अपनी कुर्सी बचाने का, जो उन्होंने अपने से कर रखा है।
यकीन था कि तुम भूल जाओगे मुझे,
खुशी है कि तुम उम्मीद पे खरे उतरे!

सरकार को छोड़कर सब जानते हैं कि दूर-दराज के इलाकों की जनता तक स्वास्थ्य व समाज से जुड़ी सरकारी योजनाओं को ले जाने का कोई काम करता है, तो वह हैं आशा कार्यकर्ता। राज्य में तकरीबन ७० हजार आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारियों को समर्पण भाव से पूरा कर दिखाया भी है। कोविड काल के समय इनका काम इतना सराहनीय रहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे इनकी भरपूर सराहना कर चुके हैं, लेकिन वर्तमान सरकार की अनदेखी की वजह से ये धरना देने के लिए मजबूर हैं। धरना या प्रदर्शन इनका शौक नहीं है, इनकी आदत नहीं है, बल्कि इनकी मजबूरी है। राज्य के विभिन्न हिस्सों से यहां पहुंचने में ही उनके आंसू निकल गए हैं तो पिछले कई दिनों से बहरी सरकार को अपनी व्यथा सुनाने में ही इनको नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। एक तो इन्हें मानधन नहीं मिल रहा है और जो मानधन मिल रहा है, वो काफी कम है और वह भी समय पर नहीं मिलता है। दीपावली उपहार के होली पर मिलने की भी संभावना नहीं दिखती।

सरकार को, मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री दोनों को ये समझना होगा कि नागरिकों की आंसुओं में बहुत ताकत होती है। एक आंसू भी हुकूमत के लिए खतरा है। तुम ने देखा नहीं आंखों का समंदर होना और यहां पर तो पिछले कई महीनों से ७० हजार जोड़ी आंखों से लगातार आंसू निकल रहे हैं।

आशा कार्यकर्ताओं के मानदेय के लिए, उनकी सुविधाओं के लिए बजट में प्रावधान करना कोई बड़ी बात नहीं है। आखिरकार इन कार्यकर्ताओं के ऊपर ५६ तरह की जिम्मेदारियां हैं। तो क्या तथाकथित ५६ इंच के सीने वाले सरकार के बॉस ने आप सभी को ये नहीं सिखाया कि ५६ एक पवित्र संख्या है। सभी ५६ वालों का सम्मान करना चाहिए। काम तो छप्पन प्रकार के लेते हो, बदले में छप्पन भोग देने की औकात नहीं है तो कोई बात नहीं, ठीक से दाल-रोटी, तन पर कपड़ा और सिर पर छत का इंतजाम तो कर ही सकते हो। आशा को आशा ही रहने दो, उसे निराशा बनने पर मजबूर न करो। अन्यथा मुनव्वर राणा का शेर सच हो सकता है- बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है, बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक मामलों के जानकार हैं।)

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