दुनिया ने जिसको दुत्कारा
उसने अपने आप को खुद उबारा
उसका न जमाने का कसूर
यह तो है तकदीर का दस्तूर
मन को मना के तन को ठोस बनाना है
रुकावट के दुश्मन को हरा के
अपने को पार लगाना है
वक्त के आहिस्ता चलने से
वादे-इरादे, तितर-बितर हो जाएं
चाह के भी वक्त खुद को बदलने से घबराए
जमाने बीत गए काम को आगाज करते हुए
पूर्ण होने में सदियां क्यूं लग जाएं
आंखें थक गईं मन ठहर गया
बहारों की पहर के लिए
इंतजार की घड़ियां पतझड़ बन गईं
फिर भी वक्त को रहम न आया
वो तिरछी नजर से देख चक्र चलाता रहा
किसी की आग बुझाने किसी की प्यास बढ़ाने
अपनी कीमत लगाता रहा
हमने भी धैर्य नहीं खोया
अपना विश्वास अटल था
नकारात्मक को पिछाड़ कर
अपनी दुविधा को सुविधा में बदल डाला
एक दिन हमारा संकल्प देख
वक्त की बेशुमार खुशनुमा बरसात हुई।
-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा