कविता श्रीवास्तव
महानगरपालिका ने मुंबई की सड़कों के किनारे लगे वृक्षों पर आकर्षक लाइटिंग करवाने पर करोड़ों रुपए खर्च किए हैं। अनेक जगह पर मुंबई को जगमगाती रंगबिरंगी प्रकाश व्यवस्था से दुल्हन की तरह चमका दिया गया है। पिछले वर्ष हुए जी-२० सम्मेलन के समय भी मुंबई को बहुत ही खूबसूरती से सजाया गया था। यहां तक कि विभिन्न सड़कों के बीच व किनारों के बिजली के खंभों पर भी बेहतरीन सजावट के साथ लाइटिंग लगवाने से मुंबई चकाचक दिख रही थी। महानगर के कई गार्डन्स और चौपाटी जैसे समुद्री तटों को भी महानगरपालिका ने भव्य सज्जा प्रदान की है। लेकिन हाल ही में मुंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर करके मुंबई के पेड़ों पर लगाई गई लाइटिंग का विरोध किया गया है, क्योंकि इस प्रकाश व्यवस्था से उन पेड़ों पर रहने वाले पक्षियों को व्यवधान होने लगा है। रात के वक्त तो मुंबई की चमक-दमक देखते ही बनती है लेकिन उन पेड़ों के बाशिंदों की नींद उड़ गई है। मुंबई में वैसे भी कंक्रीट के जंगल हैं और पशु-पक्षियों के लिए कहीं जगह नहीं बची है। मुंबई में आदमी खुद ही एक-एक इंच जगह का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है। रीयल इस्टेट के बाजार में जगह की कीमतें सर्वोच्च ऊंचाई को छू रही हैं। जगह-जगह कंस्ट्रक्शन का काम चालू है। कहीं मेट्रो का काम चल रहा है तो कहीं ब्रिज बन रहा है। कहीं सड़कों की खुदाई हो रही है तो कहीं अंडरग्राउंड टनल बन रहा है। पूरी मुंबई में बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करने के लिए भी बिल्डरों ने तेजी से काम शुरू किया हुआ है। ऐसे में पूरी मुंबई धूल और वायु प्रदूषण से परेशान है। ऐसे हालात में मुंबई के पेड़ों पर बसेरा करने वाले पक्षियों के बारे में चिंता करने वाले पशुप्रेमियों की तारीफ करनी चाहिए। मुंबई को बिल्कुल जगमग किया गया है और रातों को मुंबई को बहुत ज्यादा चमका दिया गया है। लेकिन पेड़ों पर जिस तरह से लाइटिंग लगाई गई हैं, निश्चित रूप से हजारों-लाखों पशु-पक्षी इससे प्रभावित हुए हैं। उनके रहन-सहन, विश्राम आदि का पूरा शेड्यूल खराब हो गया है। यकीनन यह प्रकृति के साथ बहुत बड़ी छेड़छाड़ है। मनुष्य ने अपनी प्रगति और विकास करते हुए हर जगह प्रकृति से छेड़छाड़ की है। यह उसका छोटा सा उदाहरण है। इस संबंध में हमें ध्यान देना चाहिए कि अभी मुंबई में गौरैया, तोता, कोयल और ढेर सारे पशु-पक्षी यहां-वहां घूमते-फिरते, उड़ते-चहचहाते दिखते हैं। इनके अलावा कबूतरों की संख्या भी बहुत ज्यादा है, जिन्हें चुगने के लिए लोग दाना डालते हैं। मुंबई की सड़कों पर आवारा कुत्ते, बिल्ली व कुछ अन्य पशुओं को भी देखा जा सकता है। बीते वर्षों में जब कोरोना काल था और हर जगह लॉकडाउन लगा था, तब इसी मुंबई में अनेक बस्तियों में मोर, बंदर, चमगादड़, उल्लू, खरगोश व अन्य कई प्रकार के पशु-पक्षियों को सड़कों पर, इमारतों के आस-पास व मैदानों में बेखौफ विचरण करते देखा गया था। इससे सिद्ध हुआ कि पशु-पक्षी मुंबई की भीड़ और कंक्रीट के जंगल से भयभीत होकर गायब हो गए हैं। कुछ दिनों की खामोशी और मुक्त वातावरण मिलने पर उनके दर्शन होना यह बताता है कि पशु-पक्षियों के नैसर्गिक जीवन में मनुष्य ने घुसपैठ करते हुए उनको पलायन करने पर मजबूर किया है। मुझे याद है जब हमारे बचपन में मुंबई की सड़कों पर गाय-बकरियां, भैंस, गधे, खच्चर, बंदर और ढेर सारे पक्षियों को स्वतंत्र रूप से विचरण करते देखा जा सकता था, तब मुंबई में हरेभरे खुले मैदान, झाड़ियां, घास युक्त मैदान, कुछ जंगल आदि भी थे। मुंबई में ढेर सारी बैलगाड़ियां भी चलती धीं। बैलगाड़ियों पर पानी और घासलेट की सप्लाई होती थी। माल ढुलाई के लिए वे उपयोगी थीं। मालाड में हम जहां रहते थे, वहां के दफ्तरी रोड पर स्टेशन से हाइवे तक घोड़े से खींचे जाने वाले टमटम और तांगे भी खूब चलते थे। पशुओं के रहने के घुड़साल, तबेले आदि भी मैंने खूब देखे हैं लेकिन वक्त के साथ वह सारी चीजें धीरे-धीरे खत्म होती गई हैं। मुंबई में बैलगाड़ी देखे हुए कोई पांच दशक बीत गए हैं। अब तो किसी जानवर को रस्सी से बांधकर कोई कुछ मांगने वाला आता है तो आजकल के बच्चे उन्हें अजूबे की तरह देखते हैं। इन बदले हुए हालात के बीच अगर मुंबई में बचे हुए पशु-पक्षियों के लिए कोई प्रयास कर रहा है तो यह मनुष्य को प्रकृति के साथ जोड़ने का प्रयास ही कहा जाना चाहिए। मुंबई में जिस तरह से सड़कों पर सरपट दौड़ते वाहनों, मेट्रो रेल, लोकल ट्रेन और हर जगह खचाखच भीड़ का वातावरण है। उसके बीच में यदि आज भी कहीं पशु-पक्षी दिखते हैं तो यह हमें प्रकृति से जुड़े रखने का एक माध्यम ही कहा जाएगा। जहां-जहां वृक्ष हैं, उन्हें भी बचाना चाहिए। वृक्षों को ही नहीं, बल्कि उन पर बसने वाले पक्षियों को और हमारी प्रकृति को संरक्षित करने के प्रयास में हर नागरिक का साथ और योगदान जरूरी है। शासन-प्रशासन को कोई निर्णय लेने से पहले निसर्ग और नैसर्गिक वातावरण के पक्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। इससे प्रकृति का सौंदर्य भी बना रहेगा और मनुष्य भी स्वयं को प्रकृति के करीब महसूस करता रहेगा।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)