कविता श्रीवास्तव
चुनावों का दौर खत्म हो चुका है। चुनावी परिणाम आ चुके हैं। नई सरकार के गठन की प्रक्रिया जारी है। लोकसभा के कई सदस्य बदल गए हैं। कुछ पुराने बाहर हो गए हैं। कुछ नए लोगों का आगमन हुआ है। कुछ पार्टियों का सरकार में समावेश हुआ है। कई मंत्रियों का फेरबदल होगा। कुछ नए मंत्री बनेंगे। कुछ दिग्गज सदन में दिखाई नहीं देंगे। हम प्रत्येक पांच वर्ष बाद यह देखते हैं। कौन रहेगा, कौन जाएगा, यह हमारे वोट ही तय करते हैं। यही परिवर्तन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण काम है इसीलिए चुनी हुई सरकार के साथ आम जनता का जुड़ाव बड़ा ही महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि सरकार के निर्णय का जनता पर सीधा असर पड़ता है। सरकार का कामकाज उसकी नीतियों पर चलता है। कई लोग उन नीतियों को पसंद नहीं करते। कुछ लोगों को नीतियां भा जाती हैं। कई विचारधाराएं सरकार से मेल खाती हैं। कई विचारधाराएं उसके विपरीत होती हैं। इन्हीं के आधार पर राजनीतिक वाद-विवाद चलते रहते हैं। मैंने अपनी राजनीतिक सक्रियता के दौरान देखा है कि चुनाव के दौरान इन्हीं सारी बातों को लेकर तथा आम जनता की समस्याओं को मुद्दे बनाकर पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। जनता से वादे किए जाते हैं। कसमें खाई जाती हैं। वचननामे दिए जाते हैं, ताकि किसी तरह भरोसा बने और वोट मिल जाए। पर, सरकार बनने के बाद कई निर्णय ऐसे भी होते हैं, जो ढेर सारे लोगों को पसंद नहीं आते हैं। कई निर्णय ऐसे भी होते हैं, जिन्हें सारे लोग पसंद करते हैं। विरोधी भी उसकी तारीफ करते हैं। यह सब लोकतांत्रिक व्यवस्था में चलता रहता है, लेकिन मैंने अपने करीबी लोगों में भी महसूस किया है कि अक्सर हर कोई किसी विचारधारा को लेकर किसी पार्टी के पक्ष में हो जाता है। जब उसकी पार्टी सफल होती है तो उसे संतुष्टि मिलती है, खुशी मिलती है, लेकिन जब उसकी पार्टी हार जाती है तो उसे निराशा होती है। थोड़ा सा सदमा लगता है, लेकिन कालांतर में सब कुछ सामान्य हो जाता है क्योंकि हम जिनका समर्थन कर रहे हैं वे भी और जिनका विरोध कर रहे हैं वे भी अपने हिसाब से ही काम करते हैं। हमारी अपेक्षाओं के पूरा होने की किसी को पड़ी नहीं रहती। आम जनता की तरह हम भी सामान्य जीवन जीते रहते हैं। महंगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से हम सब जूझते हैं। केवल चुनाव के आधार पर स्वयं को बहुत खुश कर लेना या स्वयं को बहुत दुखी बना लेना दोनों ही बातें निरर्थक ही हैं, क्योंकि हमारा कर्तव्य वोट देने तक ही सीमित है। मैंने अपनी युवावस्था में अपने क्षेत्र में अपने उम्मीदवार के लिए कार्यकर्ता के रूप में, प्रचारक के रूप में, बूथ एजेंट के रूप में, पोलिंग एजेंट के रूप में और यहां तक कि काउंटिंग एजेंट के रूप में भी काम करने का अवसर पाया है। मैंने लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव और महानगरपालिका के चुनाव में भी खूब सक्रिय भूमिकाएं निभाई हैं। मुझे याद है, जब मेरे प्रत्याशी की विजय हुई थी तो हमने जुलूस निकालकर गुलाल उड़ाकर ढोल ताशिए के साथ रातभर बस्तियों में धूम मचाया था। अपने विजयी प्रत्याशी को रथ पर बैठाकर हमने फूलों से लाद दिया था। हमने मिठाइयों का लुत्फ उठाया था। लोगों ने हमारी अगवानी की। विजयी प्रत्याशी के साथ हमारा भी खूब स्वागत किया। पार्टी के नेताओं ने हम कार्यकर्ताओं की जमकर तारीफें कीं। हमें पार्टी दी। उसके कुछ दिनों बाद जब भी हम काम लेकर गए हमारे और लोगों के काम होते रहे। यह अलग बात है कि जीते हुए प्रत्याशी अपने कार्यालय में आए हर किसी का काम कर रहे थे। आज भी करते ही हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं को थोड़ा तवज्जो दे दी जाती है। इसी से उनका मनोबल बढ़ जाता है। मुझे वह भी दिन याद है, जब हमारे प्रत्याशी की हार हुई थी और हम मुंह लटकाए घर पर आए थे। उसके बाद हमने विचार-मंथन की बैठकों में भाग लिया। घंटों विचार-विमर्श किया। एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति दर्शायी, लेकिन जिसे जीतना था, वह जीत गया। हमारे पास अगले चुनाव तक इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसके बाद समय बदला। हमने अपने निजी जीवन की ओर ध्यान दिया और राजनीति से दूर होते गए। धीरे-धीरे इतने दूर हो गए कि हमें सारी पार्टियां अपनी लगने लगीं। किसी से भी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। तब से तय कर लिया कि सामाजिक आवश्यकताओं और लोक संवर्धन की दिशा में काम करने वालों को पहचानना चाहिए। सिर्फ भावनाओं से नहीं वास्तविकता में देश के लिए काम करने वालों, गरीबों तक पहुंच बनाने वालों और सबके दुख-तकलीफों में हिस्सेदार बनने वाले लोगों को चुनकर भेजना चाहिए। यह अनुभव आया कि केवल चेहरा देखकर या लच्छेदार भाषण सुनकर भावुकता के बहाव में बहकर कभी वोट नहीं देना चाहिए। हमारा वोट किसी प्रत्याशी के लिए ही नहीं हमारे लिए भी कीमती है। अत: उस एक वोट को हमें हर बार अपनी सूझ-बूझ, अपने विवेक से सही प्रत्याशी को देना चाहिए। इतनी समझदारी हमें रखनी चाहिए। सरकार चाहे जो बने वह आम जनता के हितों के लिए सक्रिय रहे। देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई को मिटाने का प्रयास करे। महंगाई को बेकाबू होने से रोके। सबको रोजगार दिलाए। पढ़ाई और चिकित्सा जैसी बुनियादी चीजें बहुत महंगी न होने दे। हमारी प्रतिभाओं का विदेशों में पलायन रोके। देश का सर्वांगीण विकास करे। नेता गरीबों, किसानों, युवाओं, महिलाओं के साथ खड़ा दिखे। नागरिकों को मुफ्तखोर नहीं, सचमुच आत्मनिर्भर बनाए। ऐसे प्रयास होने चाहिए। लोकतंत्र में कोई भी अहंकारी व अभिमानी शासक न बने। कहीं कोई तानाशाही न हो। जनता-जनार्दन ही सरकार की मालिक बनी रहे, तभी हमारा पवित्र लोकतंत्र पूजनीय बना रहेगा।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)