अजय भट्टाचार्य
यह कहानी मध्य प्रदेश के इंदौर में रहनेवाले एक शख्स की है। केरल में एक रेलवे स्टेशन है-चेंगन्नूर! सन् १९९० की गर्मियों में केरल एक्सप्रेस से अपने यही इंदौर वाले महाशय चेंगन्नूर स्टेशन पर उतरे। साथ में माता-पिता थे। उस समय महाशय सातवीं के छात्र थे। चेंगन्नूर स्टेशन से कोई ३० किलोमीटर दूर पिता के मित्र के घर गए। एक एम्बेसडर ली, २० दिन तक पूरा दक्षिण भारत घूमा। हर एक मंदिर, हर एक बीच, हर एक टूरिस्ट प्लेस, जो आप नाम याद करते हों। पूरे वक्त गाड़ी हाईवे पर चली। एक साल पूर्व उड़ीसा गए थे। वहां भी ऐसा ही, दिल्ली से मनाली गए। वैसी ही रोड-तब भी हाईवेज होते थे। बढ़िया, चिकने-टू लेन!! फोर लेन कम थे। पर टू लेन काफी था, क्योंकि ऐसी भीड़ नहीं थी। इतनी गाड़ियां थी नहीं। पिता अक्सर एम्बेसडर लेते और वो ८० की स्पीड पर चलती। अपने पात्र विंडो सीट होती और शीशा डाउन, हवा की सरसराहट बड़ी अच्छी याद है पर उसका सपना सीएलो थी। डैवू कंपनी की कार, पहली विदेशी कार, जिसके उस वक्त अखबारों में विज्ञापन आते। मारुति १००० भी आ गई थी। कुछ और भी कारें-विदेशी।
कुछ बरस बाद भाई इंदौर में था। एमवाई से सरवटे बस स्टैंड के बीच कहीं एक मकान था। बाहर ४ विदेशी मॉडल की कारें खड़ी होतीं। सोचा कि बस, बड़ा होकर घर के सामने ऐसी ही ४ कारें खड़ी करनी है। आनेवाले दौर में सड़कों पर गाड़ियां बढ़ने लगीं। हाईवे चौड़े होने लगे। टू लेन फोरलेन में बदले। आजकल सिक्स लेन, एट लेन रोड बनती हैं। इलेवेटेड हाईवे बनते हैं। जितना इंप्रâास्ट्रक्चर आज बन रहा है ७० साल में नहीं बना। क्या तब की सरकारें सो रही थीं? उन्होंने ध्यान क्यों नहीं दिया वगैरह वगैरह। एक रिश्तेदार सन् ९० के दशक से कांग्रेस विरोधी हैं। एक बार दिल खोलकर कारण बताया-उनके पिता का पुरानी गाड़ियों का कारोबार था। सेकेंड हैंड ४०-५० हजार में खरीदते उसे रंग-रोगन, इंजन ट्यून कराकर तिगुने दाम में बेचते। बढ़िया व्यवसाय था, धनी लोग थे। फिर पीवी नरसिम्हाराव सरकार में ९२-९४ तक बाजार खुला, फाइनांस सस्ता हुआ। अचानक से यूज्ड कार मार्वेâट ध्वस्त हो गया। जब किस्तों में गाड़ी मिल रही है, ब्रांड न्यू मिल रही, तो पुराना क्यों लें। उनकी लाखों रुपए की गाड़ियां फंस गईं। बिजनेस डूब गया, जीवन बिगड़ गया।
यह एक विडंबना है। एक सरकार, अपने नागरिकों के लिए बाजार खोलती है। नई तकनीक, विदेशी गाड़ियां, सस्ता फाइनांस आता है। आम लोग नई गाड़ी खरीदने में सक्षम होते हैं। उधर किसी का धंधा बर्बाद हो जाता है, सरकार को कोसता है। पर यह वही दौर था जब इस कहानी का नायक इंदौर में है। डैवू की गाड़ी उसका सपना है। बड़ा आसान, सच हो सकने वाला सपना है। दूसरों के लिए भी गाड़ियां लेना आसान है। सड़कों पर गाड़ियों का घनत्व तेजी से कई गुना बढ़ता है। अब सड़कों के चौड़ीकरण की जरूरत होती है। रूरल रोड, स्वर्णिम चतुर्भुज, भारत निर्माण जैसे प्रोजेक्ट आते हैं।
९० के लिबरलाइजेशन के दस वर्षों के अंदर ही सड़कों का काम कई गुना बढ़ा। कार कंपनियां, नए मॉडल, नए जॉब, पेट्रोल पंप, सर्विस सेंटर, सक्षम ग्राहक, फाइनांस कंपनियां बढ़ी, जिसे आम भाषा में बूम कहते हैं। सबकी आय, जीवन स्तर बढ़ रहा था। चौपहिया-दुपहिया वाहनों की बढ़ोतरी के साथ ही टोल नाके भी बढ़े। आपको शायद नहीं मालूम कि नाका कर्ज का प्रतीक है। अपनी कहानी के नायक को चेंगन्नूर से १५ दिन के दक्षिण भारत भ्रमण के दौरान एक भी टोल नाका याद नहीं अर्थात टोल मुक्त यातायात। आज २५० किमी में ३ नाके पड़ते हैं। यह इंप्रâा फाइनांस का नया मॉडल था/है। नेहरू १०० रुपए में २ रोड बनवाते थे, क्योंकि हर रोड ५० रुपए की पड़ती। मनमोहन सिंह १० रोड बनवाते, यानी बाकी का ४०० रुपया कर्ज से आता। मोदी १०० रोड की घोषणा करते हैं। यानी ४,९०० रुपया कर्ज का। उनका लिया कर्ज हम कर्ज टोल नाके पर से भरते है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर ५ लाख करोड़ का कर्ज है। इस तरह राशन, बिजली, जल योजना, मकान योजना-सब कर्ज का घी है। मत जानिए कि जिस रोड का खर्च ४०० करोड़ होता, वह १,२०० करोड़ में क्यों बनती है? पर चुनाव से लेकर राम मंदिर के नाम पर देशभर में जो माहौल देखते हैं-वह भी कर्ज है। क्योंकि उसका धन भी इन्ही `विकास’ प्रोजेक्ट्स से निकला है।
चिंता होती है, जब इन प्रोजेक्ट के नाम पर सीना फुलाते लोग दिखते हैं। २० शहरों में मेट्रो के नाम पर कुछ लाख करोड़ रुपए फूंके जा चुके हैं। दिल्ली मेट्रो के अलावा कोई अपना परिचालन खर्च नहीं निकाल पाता। लागत दूर की बात है। मर्म यह कि जिस चीज की जब जितनी मात्रा में जरूरत हो उस अनुसार अवश्य बनाए गए। मगर गर्व करने के लिए मेगाप्रोजेक्ट्स पर कर्ज के पैसे लगाने का नया दौर है। जनता की ओर से कर्ज लेकर मौज करने की प्रवृति पर कोई रोक नहीं है। बड़ा हिस्सा ठेकेदार का चना-चबैना आपके हिस्से भी आ जाता है। कर्ज जब भरने का इरादा हो तो लेने वाला संयम रखता है। पर जब इसे आपको नहीं भरना हो आप अपनी उम्र, करियर, सभ्यता के आखिरी पड़ाव पर हो तो कर्ज से डर नहीं लगता। उन्हें भी कहां लगता है। गारंटी बांटने वाले से पूछो हर साल दो करोड़ सरकारी नौकरियों का क्या हुआ, २०२२ तक हर सिर को छत का क्या हुआ, सौ स्मार्ट सिटी कहां हैं, किसानों की आय दोगुनी हुई क्या? २०१४ में अच्छे दिन वाला जुमला अब गारंटी-वारंटी बनकर उछाला जा रहा है, जो व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी को दी गई गारंटी पूरी न कर सका वह मूर्खों के लिए गारंटी जुमला लेकर फिर मैदान में है। सावधान रहिए!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)