बेरोजगार

घर से निकाला हूं मैं
किसके हवाला हूं मैं
रहने के लिए मकान नहीं
जीने के लिए सामान नहीं
कोई भी काम नहीं
ये आलम है बेरोजगारी का
कैसी है ये बीमारी का
बेरोज़गारी की चोट खाई
किस को रहम न आई
क्यूंकि कोई नहीं कमाई
रिश्ते भी अब टूट गए
न कोई बहिन है – न कोई भाई
सोचते हैं कहीं से कोई आवाज़ आए
हमे भी रोज़गार बनाए
हमारे जो सपने हैं
वो टूट के बिखर न जाए
बस काम की तालाश है
बस काम बन जाए
पैसों से चलती है ये दुनिया
लेन-देन का हिसाब है
कोई किसी के काम आए तो
वो भी उसका मोल चुकाए
थर-थर्रात्ता है ये ज़मीर उन बेकारों का
जिनकी न कोई सहर है
न कोई बसर है
न कोई रह-गुजर है।

-अन्नपूर्णा कौल
नोएडा

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