अनजान शहर

अनजान शहर है यहां रहना है संभल के,
अच्छे बुरे का साथ है चलना है संभल के।
राहें कठिन लगेंगी थोड़ा डर भी लगेगा,
मंजिल सदा ही मिलती है संघर्ष के बल पे।।
पैदा हुआ था कष्ट था, है आज भी कल भी,
फिर भी मगन ही रहता हूं दुख में नहीं पल भी।
रोने से कहो, कष्ट किसी का हुआ कम क्या?
कीचड़ में ही तो खिलता है मेरे यार कमल भी।।
जीवन में आगे बढ़ने का ये कैसा चलन है?
प्रतियोगिता में साथियों से कैसा जलन है?
सुख दुख में काम आते हैं जो, असली हैं साथी,
जो मर मिटेगा दोस्त के खातिर को नमन है।।
-पंकज तिवारी

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