अनिल तिवारी मुंबई
महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावी नतीजे आ गए। नतीजे चौंकानेवाले रहे। लोकसभा के बाद हरियाणा और फिर महाराष्ट्र, सभी के नतीजे एक से बढ़कर एक अचंभित कर रहे हैं। जमीनी तस्वीर से एकदम जुदा। जहां डबल इंजिन की सरकार है, वहां ‘डबल जीत’। जहां नहीं है वहां सीधी हार। आश्चर्य ही है। डबल से याद आया कि हालिया लोकसभा में जो पार्टी महाराष्ट्र में डबल डिजिट भी नहीं थी, ३२ प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से मात्र ९ सीटें जैसे-तैसे जीत पाई थी, २३ सांसदों में से १४ हार गई थी, वो अचानक इस विधानसभा में लगभग ९० प्रतिशत की स्ट्राइक रेट से १३२ का आंकड़ा वैâसे पार कर गई? अर्थात तब महाविकास आघाड़ी के सामने संपूर्ण महायुति महज १७ लोकसभा सीटें जीत पाई थी, उसकी अगुआ भाजपा को लोकसभा ही क्या पिछली विधानसभा से भी ३० सीटें ज्यादा वैâसे मिल गर्इं? आखिर गत चार महीनों में राष्ट्र या महाराष्ट्र में ऐसा क्या हो गया कि लोगों का मन इतना परिवर्तित हो गया या फिर लोगों ने दिल्ली की तुलना में गल्ली का नेतृत्व बड़ा मान लिया? दिल्ली का कद छोटा कर दिया। इन नतीजों को देखकर तो यही कहा जा सकता है। खैर, यह ‘बड़ी’ जीत का ‘बड़ा’ मुद्दा है। फिलहाल हम बड़ी नहीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों पर चर्चा करेंगे।
९९ प्रतिशत वाली ईवीएम
९९ प्रतिशत ईवीएम चार्जिंग का मुद्दा इस बार भी उठा है। हरियाणा परिणामों के बाद यह मुद्दा सुर्खियों में आया था। कांग्रेस ने इस पर गंभीर आपत्ति भी दर्ज कराई थी, पर चुनाव आयोग ने उसे सिरे से दरकिनार कर दिया। क्यों? यह तो वही बेहतर बता सकता है। इसमें तकनीकी सच्चाई जो भी हो पर भविष्य की यह सच्चाई तो समाई ही है कि जल्द ही यह मुद्दा सियासत की मुसीबत बनेगा? फिर चाहे वो चुनाव आयोग हो, सत्ताधारी भाजपा हो, विपक्ष हो या फिर देश की सामान्य जनता?
‘लाड़ले’ ऑफर और नीयत
मध्य प्रदेश के भूतपूर्व ‘लाड़ले’ मुख्यमंत्री और मौजूदा केंद्रीय कृषि मंत्री ने देश को और कुछ दिया हो या न दिया हो, पर कम से कम उन्होंने सियासत को ‘द्यूत जीत’ का फॉर्मूला तो दे ही दिया है। इसे राजनीति में ‘चौहान की चौसर’ कहा जा सकता है। जैसे विज्ञान में न्यूटन का फॉर्मूला है, ‘अज्ञान’ में यह फॉर्मूला खूब धूम मचाएगा। एमपी के बाद महाराष्ट्र में भी धूम मचा ही दी है। हालांकि, यहां पेच यह है कि ‘रेवड़ी’ कल्चर की इस पराकाष्ठा से क्या इसके सख्त विरोधी ‘पार्टी नेतृत्व’ की अवमानना नहीं हुई है? अर्थात, पहले उनके कद और फिर उनके पद दोनों की गरिमा का महाराष्ट्र की भाजपा ने खयाल नहीं रखा। खैर, महत्वपूर्ण बात यह भी नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण तो यह है कि अब ‘लाड़ली’ योजना का भविष्य क्या? ऐसे वक्त में जब सरकारी खजाना खाली हो तो भला कब तक सत्ता की नीयत नहीं डोलेगी? वो खुद ही किसी के जरिए रोक का रास्ता नहीं बना लेगी? मुंबई टोल के मसले पर भी यदि ऐसा ही कोई रास्ता खोज लिया जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ‘मरता क्या न करता’, वाली कहावत आपको याद ही होगी।
वंचित और वर्चस्व
महाराष्ट्र में पिछले डेढ़-दो दशकों से कुछ छोटी-मोटी पार्टियों में वंचितों और वर्चस्व के ‘बड़े-बड़े’ दावे शुरू हैं। अपने दम पर सरकार बनाने की डींगें हैं, हालांकि जमीनी हकीकत में वे शून्य हैं। यह सच्चाई ये पार्टियां भी जानती हैं। फिर भी हमेशा ‘एकला चलो’ वाले फॉर्मूले का इस्तेमाल करती हैं। जब उन्हें अहमियत दी जाती है तब भी वे मुख्यधारा में सहभागी नहीं होतीं, अलग ही रास्ता अपनाती हैं। क्यों? तो अब बहुत कुछ राज्य की जनता भी समझ गई है। इसलिए वंचितों की बात करनेवाली और वर्चस्व के खोखले दावे ठोकने वाली दोनों ही पार्टियों को जनता ने ‘जीरो’ देकर नवाजा है। आत्ममंथन करने को प्रेरित किया है।
भाऊ का फसाना
इस बार चुनाव ‘परिणामों’ में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। एक लिहाज से देखें तो अकेले के दम पर भी वो सरकार बनाने के करीब है। अर्थात, भाऊ फिर से सुनहरे सपनों में ही हैं, परंतु जिस तरह से नई भाजपा काम करती है, उनके सपनों पर फिर से किसी की नजर न लग जाए, यह डर उन्हें सता ही रहा होगा। खासकर तब, जब कुछ भाजपाइयों ने ही ऐसे संकेत दिए हों। पिछली बार भी तो ऐसा ही हुआ था। कपड़े बदल-बदलकर कांड किया भाऊ ने, कुर्सी पाई खाऊ ने। बेचारे मुख्यमंत्री बनते-बनते उप मुख्यमंत्री बन गए। इस बार भी कहीं ऐसा ही न हो जाए! क्योंकि अब ‘सब कुछ मुमकिन है।’
सतर्क रहें ‘सचेत’ वालों
मतदान से ऐन पहले मुंबई के करीब एमएमआर में पैसों का खूब धमाल हुआ। जमकर हो-हल्ला मचा। दिनभर टीवी की सुर्खियां रहीं और फिर अगले दिन सभी, सब कुछ भूलकर वोट बचाने में जुट गए। मतदान हुआ और नतीजे भी आ गए। पैसे वाले जीत गए और हंगामेवाले हतप्रभ रह गए। परंतु अब जैसी कि चर्चा है कि हतप्रभ रहने का यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ है, बल्कि यह तो अभी जारी रहेगा। जनता भले ही सब कुछ भूल जाए, पर सत्ता नहीं भूलेगी? उनका अतीत इसका साफ-साफ उदाहरण जो है। ऐसे में अब ‘सचेत’ वालों के पास सतर्क रहने के अलावा कोई पर्याय नहीं है। अपने जन प्रतिनिधियों के प्रति भी और खुद के प्रति भी।
चाल, चरित्र और चेहरा
बात एमएमआर की ही निकली है तो एक और पड़ोसी सीट की चर्चा कर लेते हैं। यहां २०१९ के चुनाव में जनता ने भाजपा के उम्मीदवार को बुरी तरह हराया था। जनता उनसे इतनी त्रस्त थी कि किसी को जिताने के लिए नहीं, बल्कि इन्हें हराने के लिए उसने ‘बैटिंग’ की थी। नतीजे में वो क्लीन बोल्ड भी हो गए। भ्रष्टाचार से लेकर व्यभिचार तक सभी ने उनकी पिच पर घातक बोलिंग की, खिलाड़ी चारोंखाने चित। परंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि कलंकित चरित्र और चालबाज चेहरे को पराजित करने वाली महिला विजेता को भी इस पार्टी ने सम्मान नहीं दिया। जबकि जीतने के बाद भी उसने उनकी शरण स्वीकार कर ली थी। विरोधी पक्ष को ही अपना सियासी हक दे दिया था। तब भी ‘मालिक’ ने अपना चाल, चरित्र और चेहरा उजागर कर ही दिया। महिला सशक्तीकरण की घज्जियां उठाते हुए दागदार दामन को ही ‘मान्यता’ दे दी। दोबारा पिच पर ‘दागी’ को ही उतारा और ‘विजेता’ धूल चाटती रह गई। यह बदले हुए इन चुनावों की एक नजीर है। हारने वाले के लिए भी और जितानेवालों के लिए भी। हारनेवाले ने जहां खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है तो जितानेवालों ने भी फिर से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मरवाने का पूरा इंतजाम कर लिया है। फिर वही युग लौटेगा, जिससे वो त्रस्त थे। क्योंकि नियति और नीयत बदल तो नहीं सकती।
खुद का मोल, मिट्टी मोल
दुर्भाग्य यह है कि हारी हुई इस प्रत्याशी ने खुद का मोल ही नहीं जान पाया। किसी भी शहरी इलाके में निर्दलीय जीतने का महत्व क्या होता है यदि वो इसे पहचान लेतीं तो उनकी यह दुर्गति नहीं होती। ग्रामीण इलाकों में तो किसान-मजदूरों के एक से मुद्दे होते हैं, उन पर आवाज बुलंद करने वाले अक्सर निर्दलीय चुनाव जीत जाते हैं पर शहरी इलाकों में सबके मुद्दे भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसे में मतदाताओं पर प्रत्याशी का कम पार्टी की विचारधाराओं का ज्यादा असर रहता है। वही असर हार-जीत का पैâसला करता है। इन कठिन परिस्थितियों में भी, यदि ‘तोहफे’ के तौर पर जीत मिल जाए तो क्या कहना। यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है जो उसका मोल नहीं करता, वो मिट्टी मोल बिक जाता है। यदि उन्होंने भी इसका मोल किया होता, पहले जिसका दामन थामा था, वही थामे रखा होता तो आज सीधी लड़ाई में वो जीत की हकदार होतीं। पर उन्होंने दूरदृष्टिता नहीं दिखाई। खुद के वजूद को खुद ही मिटा डाला। इतनी बड़ी निर्दलीय जीत के बाद भी शहर की छोटी-मोटी राजनीति में व्यस्त रहीं। जबकि उन्हें किस्मत ने एक बड़ी उड़ान का मौका दिया था। राज्य की राजनीति का अवसर दिया था, पर उन्होंने अपनी ‘अंध’ पार्टी भक्ति में सब गवां दिया। पार्टी ने साफ-सुथरी छवि होने के बावजूद उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका।
एक सीट की महिमा निराली
महाराष्ट्र में कुल २८८ सीटों पर चुनाव हुए, २८८ जीत हुर्इं। पर इन सब में एक सीट की महिमा निराली है। जहां एक पार्टी का जन्म हुआ, पार्टी प्रमुख का आवास है पर घर का नतीजा ही तीसरे नंबर पर रहा। यह अपने आप में बहुत कुछ कहता है। विश्लेषण आपको करना है और मंथन उन्हें। अब हवाई और बिकाऊ राजनीति से जनता ऊब गई है। यहां मंथन उन्हें भी करना चाहिए, जिन्होंने गद्दारी का रास्ता चुना था। अपनी जीत को वो लगभग तय ही मान रहे थे। पर जब मतदाताओं ने उन्हें प्रचार के दौरान दौड़ाया तो शायद उन्हें जमीनी हकीकत समझ आ गई होगी। और अब शायद वे भगवान सिद्धिविनायक के समक्ष खड़े होकर अपनी करनी का मूल्यांकन कर रहे होंगे। बस इतना ही। चुनाव खतम, तो हमारा विश्लेषण भी खतम। जय महाराष्ट्र!