मुख्यपृष्ठस्तंभपर्यावरण असंतुलन के लिए यूज एंड थ्रो कल्चर जिम्मेदार

पर्यावरण असंतुलन के लिए यूज एंड थ्रो कल्चर जिम्मेदार

चंद्रवीर बंशीधर यादव

पर्यावरण संतुलन के लिए जीव-जंतु 33.33%, मनुष्य 33.33% और पेड़-पौधों का 33.33% होना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन विडंबना यह है कि मनुष्य ने पेड.-पौधों और जीव-जंतुओं की दुनिया पर भी कब्जा कर लिया है।फलस्वरूप शहरों के सीसीटीवी कैमरों में खतरनाक प्राणी दिखाई देने लगे हैं।इसी वजह से मनुष्य और प्राणी दोनों एक-दूसरे से डरने लगे हैं। वास्तव में पृथ्वी पर मानव प्रजाति, जो दस लाख वर्ष पूर्व की है वह लगभग बारह हजार वर्ष पहले मानव वन में रहकर शिकार कर एवं वन्य पदार्थ एकत्रित कर अपना पेट भरता था। आज वह स्वयं ही विभिन्न बीमारियों का शिकार हो गया है। पूर्व में भले ही कृषि क्षेत्र में क्रांति हुई, तत्पश्चात सत्रहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति हुई, लेकिन जिसकी वजह से लगभग पच्चास वर्ष पूर्व इन्फार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी की वजह से भूमंडलीकरण का आगाज होने लगा। लोग अपने घरों में बैठकर आस्ट्रेलिया में हो रहे क्रिकेट मैच को देखने लगे। लोग संपूर्ण विश्व का ताजा हाल हाथ में टीव्ही के रिमोट को लेकर देखने लगे। समाज में सांस्कृतिक परिवर्तन होने लगा। फलस्वरूप औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण की शुरुवात हुई। अपनी मूलभूत आवश्यकताओं एवं बढ़ती डिमांड को पूरा करने के लिए लोगों ने पृथ्वी पर अनेक परिवर्तन लाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप समृद्धशाली पर्यावरण अपने आपको लाचार समझने लगा।

उसी की वजह से लोग पेड़ लगाने की जगह पेड़ काटने लगे, जिस कारण प्राणवायु की जगह कार्बनडाईआक्साइड ने ले ली और पृथ्वी पर प्रदूषण की हवा चलने लगी। मानव जो प्रकृति (निसर्ग) प्रेमी था वह दिन दूना रात चौगुनी बढ़ती जनसंख्या की वजह से गांव छोड़कर शहर में आ गया। ऐसा लग रहा है कि जैसे सारा का सारा गांव ही शहर में बसने लगा हो। कहीं न कहीं आधुनिकता की अंधी दौड़ का हम सभी शिकार हो गए। गांव की खुली हवा में पेड़ के नीचे सोने वाला मनुष्य शहर में संयुक्त परिवार की जगह मैं और मेरा की भूमिका में आ गया। फलस्वरूप वह गांव से लेकर शहर तक संकुचित मानसिकता का शिकार होने लगा, जो पेड़ हमारे पुरखों ने लगाये थे वह पेड़ हमने कटवाकर बेच दिया और उससे मिले पैसे तक को एक समान भाग में आपस में बाट लिया। पेड़ की जगह गमलों ने ले लिया। हद तो तब हो गई, जब हमने गमलों के पौधों को हटाकर उसमें आर्टिफिशियल पौधों को ठीक अपने आर्टिफिशियल पारिवारिक संबंधों की तरह लगा दिया। सब कुछ आर्टिफिशियल हो गया। छोटे-छोटे घर गायब से हो गए। वे इमारत के रूप में तब्दील होने लगे । शहरों की जगह में कमी आने लगी। यहीं से शुरू हो गया प्रकृति पर अत्याचार। विशालकाय इमारतें बनने लगीं, जिसकी वजह से हजारों वर्ष से फलने-फूलने वाले विविधता भरे, रंग-बिरंगे, खूबसूरत जीवन को खतरे में डालने वाली स्थितियां मानव-निर्मित कारणों से विकट हो गईं और फिर क्या था पेड़-पौधे की कमी होने लगी और लोग विभिन्न बीमारियों के शिकार होने लगे।

उधर गांवों में किसानी भी कम होने लगी। किसान हर साल मानसून की प्रतीक्षा करते-करते निराश होने लगे और पर्यावरण असंतुलन के कारण सब कुछ मानव के विपरीत घटित होने लगा। वैसे इस बारे में वैज्ञानिक निरंतर चेतावनी देते रहे हैं कि एक ‘टिपिंग पॉइंट’ के बाद कुछ पेचीदा पर्यावरणीय समस्याएं मानवीय प्रयास द्वारा नियंत्रित होने की क्षमता से बाहर निकल सकती हैं। वास्तव में पर्यावरणीय समस्याओं के संदर्भ में किसी से भी उम्मीद रखना बड़ा ही आत्मघाती बन चुका है। कागज पर तो बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते रहे हैं, विशेषज्ञों की रिपोर्टें भी तैयार होती रही हैं, पर इन सब के बावजूद ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण की स्थिति बड़ी ही भयावह बन चुकी है। प्रकृति का ऐसा असंतुलन है कि न तो बारिश हो रही है न तो पहले की तरह मौसम रहा।कभी-कभी तो बाढ़ आ जाती है, फिर सूखा पड़ जाता है। इस पर विराम तभी लग सकता है, जब देश के लगभग डेढ़ करोड़ लोग कम से कम दो-दो पेड़ लगाएंगे। यह स्थिति पर्यावरण विनाश से जुड़ती नजर आ रही है। धरती की जीवनदायिनी नदियों की ओर हमारे निराशावादी दृष्टिकोण से इसको और बल मिल रहा है, साथ ही कुछ नासमझ लोगों की वजह से जनसंख्या वृद्धि, तत्पश्चात मांग वृद्धि के फलस्वरूप मशीनीकरण ने सब कुछ आर्टिफिशियल बना दिया है।इस व्यवस्था ने हमारी गति तो बढ़ा दी, लेकिन हमारे जीवन को अंत की तरफ तेजी से धकेल दिया है।

यही कारण है कि हम मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक की बोतल बंद पानी से अपनी प्यास बुझाने लगे हैं। सिंगल यूज अर्थात यूज एंड थ्रो की संस्कृति को अपनाने लगे हैं। यही कारण है कि हमारी सरकार ने सन् 2022 के जुलाई माह के प्रथम सप्ताह से ही देशभर में सिंगल यूज प्लास्टिक (एसयूपी) के 19 आइटमों पर बैन लगा दिया और सभी को जागरूक करने का काम किया। इनका उपयोग करने वालों को जुर्माने से लेकर जेल तक है। खास बात यह है कि अगर कोई नदियों में प्लास्टिक फेंकता मिला तो उस पर भी जुर्माना लगेगा। यही काम कोई संस्था करती मिली तो उस पर आम आदमी से 25 गुना ज्यादा जुर्माना लगेगा। साथ ही ईयरबड्स, बैलून स्टिक, झंडे, कैंडी स्टिक्स, आइसक्रीम स्टिक, थर्माकोल, प्लेट्स, चम्मच, गिलास, छुरी, स्ट्राँ, ट्रे, डिब्बों को पैक करने वाली प्लास्टिक, निमंत्रण पत्र, सिगरेट पैकेट सहित 100 माइक्रोन से कम मोटाई वाले प्लास्टिक और पीवीसी बैनर आदि।लेकिन पर्यावरणविदों की राय में कुछ ऐसे प्लास्टिक प्रॉडक्टस हैं, जिनके उपयोगिता में कम अंक और पर्यावरण पर असर के पैमाने पर ज्यादा अंक आने के बावजूद उन्हें प्रतिबंध में शामिल नहीं किया गया। फलस्वरूप बड़े कारोबारियों पर इन आइटमों पर लगे प्रतिबंध का कम असर होगा।

इसका सबसे अधिक असर छोटे उद्योग और छोटे व्यापारियों पर पड़ा है। वहीं इस प्रतिबंध में एफएमसीजी अर्थात तेजी से आगे बढ़ने वाली उपभोक्ता कंपनियों की सिंगल यूज प्लास्टिक को शामिल नहीं करना भी आश्चर्य करने वाला कदम है।सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की प्लास्टिक रीसाइक्लिंग डिकोडेड रिपोर्ट के अनुसार, प्लास्टिक के कुल कचरे के लगभग 60 फीसदी प्लास्टिक की पैकेजिंग से आता है। इस पैकेजिंग का काफी हिस्सा यूज होने के कुछ मिनटों या दिनों के बाद अलग कर दिया जाता है। उद्योगों के आकलन के मुताबिक भारत ने 2018 में 1.84 करोड टन प्लास्टिक का इस्तेमाल किया था, जबकि उस एक साल में उत्पादन केवल 1.7 करोड टन प्लास्टिक का हुआ था। प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से वैश्विक लड़ाई में सरकार की अधिसूचना का काफी महत्व है।
ऐसे में हमने जाने-अनजाने में अपना कचरा नदियों तक पहुंचा दिया है, अर्थात हमें नदियों को स्वच्छ करने को कौन कहे, बल्कि उसका अस्तित्व ही समाप्त करने में लग चुके हैं। यदि हमारा यही रवैया रहा तो निश्चित रूप से हम नदियों को सुखा देंगे। याद रखिए नदी सूख गई तो इस पृथ्वी पर हमारा भी अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इसलिए नदियों को जीवित इकाई का दर्जा दिया जाना चाहिए। न्यूजीलैंड पहला ऐसा देश है, जिसने नदी को मनुष्य और जीवित इकाई का दर्जा दिया। उसने अपनी वांगानाई नदी को जब यह दर्जा दिया तो उसके इस निर्णय की जमकर प्रशंसा हुई, फिर हम कहां पीछे रहने वाले थे। हमारे देश में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राज्य की नदियों को लेकर ऐसी ही टिप्पणी की। कोर्ट ने नदियों के अस्तित्व व योगदान को ध्यान में रखते हुए उनके महत्व को रेखांकित किया, लेकिन अफसोस आज दुनिया की सारी नदियां ही संकट में हैं। ग्लेशियरों से निकलने वाली हिम नदियां फिर भी हमारा तब तक साथ नहीं छोड़ेंगी, जब तक हम हिमखंडों को पूरी तरह बर्बाद न कर दें, पर वर्षा नदियों पर तो सभी तरह के संकट आ चुका है। हमारा जीवन सीधे-सीधे नदियों से जुड़ा है। दुनिया की तमाम सभ्यताएं नदी के तटों पर ही विकसित हुईं। हमारे पूर्वज नदियों के महत्व को जानते थे, इसलिए उन्होंने नदियों को अपने परिवार से बढ़कर माना।कदाचित इसी वजह से उन्होंने नदियों को हमारी सांस्कृतिक-धार्मिक परंपराओं का अंग बनाया, ताकि हम उन्हें पवित्र बनाए रखें।
लेकिन धीरे-धीरे हम यह बात भूलते गए और हमने नदियों को तबाह कर दिया।दुनिया में 40 बड़े जलागम क्षेत्र हैं, जो संसार के 50 फीसदी सतही पानी के धारक हैं। इसमें 40 फीसदी की गिरावट सिर्फ इसलिए आ गई कि हमने इन जलागमों के 50 फीसदी से ज्यादा वनों को निगल लिया है। आज जब एक वर्ष में दुनिया में 115 अरब वृक्षों का ह्रास हो रहा हो तो समझ लीजिए कि हवा, मिट्टी और पानी का क्या होगा? भारत में 14,000 वर्ग किमी वनों का सफाया 23,000 उद्योगों के लिए हुआ है। वन नदियों के नियंत्रक होते हैं। मॉनसून में नदियों का आपे से बाहर हो जाना और अन्य मौसमों में विलुप्त हो जाने का कारण इनके जलागम क्षेत्रों का वनहीन होना ही है। किसी नदी की सेहत कितनी अच्छी है, यह मॉनसून व अन्य मौसमों में उसके प्रवाह के अनुपात से तय होता है। अच्छी नदियों में यह 1:7 माना जाता है। यानी उनमें आम मौसमों की तुलना में मॉनसून में ज्यादा से ज्यादा सात गुना पानी होना चाहिए, जबकि आज यह अनुपात 1:70 का है। स्पष्ट है वनहीन जलागम क्षेत्र वर्षा जल को थामने की स्थिति में नहीं होते, जिससे बाढ़ आती है।
नदियों पर ज्यादातर चर्चा उनके प्रदूषण को लेकर ही होती है न कि उनके प्रवाह को लेकर। नदियों में अगर गति बनी रहे तो वे अपने आप ही प्रदूषण मुक्त रहती हैं। लेकिन आज नदियों का प्रवाह रुक गया है। उनमें प्रदूषण इस कदर बढ़ गया है कि सुधार की संभावनाएं ही नहीं दिखाई देतीं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, देश की आधी से अधिक नदियां पूरी तरह प्रदूषण के चपेट में आ चुकी हैं। वैसे यह आंकड़ा भ्रमित करने वाला है, क्योंकि भारत में ऐसी कोई नदी है ही नहीं, जिसे स्वस्थ और स्वच्छ कहा जा सके। हमारे देश में कुल नौ नदी तंत्र हैं, जो देश के 81 फीसदी भूभाग में फैले हैं। इनसे औसतन हर व्यक्ति को हर साल 1,720.29 घन मीटर पानी मिलता है, पर तेजी से बढ़ते प्रदूषण ने इस आंकड़े पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। आज सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में एक घग्घर है, जो हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा से गुजरती है। दिल्ली से गुजरने वाली यमुना, जो पहले यहां की शान थी, अब सबसे प्रदूषित नदियों में गिना जाना चिंता का विषय है।

गंगा, जिसकी सफाई हमारी सरकार जिस उत्साह से करती है, हम उतने ही उदासीन होते जाते हैं।हमारे इसी उदासीन रवैए के कारण वह आज भी मैली ही है। दुख इस बात का होता है कि हमें तनिक भी एहसास नहीं है कि हमारी उदासीनता के ही चलते ही दुनिया की पांच सबसे प्रदूषित नदियों में गंगा का नाम दर्ज है। आईसीएमआर की रिपोर्ट के अनुसार, इसमें डुबकी लगाना अपनी जान को खतरे में डालना है।एनजीटी गंगा पर जो टिप्पणी कर चुकी है, उससे हमारी लापरवाही प्रमाणित होती है। वास्तव में कुछ बेहतर नदियों में कृष्णा, वर्धा, ताप्ती और बेतवा को रखा गया है, पर इनकी स्वच्छता के बारे में भी दावा नहीं किया जा सकता है।वैसे दुनिया की तमाम बड़ी नदियों का भी यही हाल है। अमेरिका की मिसीसिपी नदी हर साल 120 करोड़ टन कचरा ढो रही है। इससे जुड़ी मिसीसिपी घाटी की खेती-बाड़ी पर आफत आ गई है और इसे अब डेड जोन कहा जाता है।इटली की सार्नो यूरोप में सबसे गंदी नदी बन चुकी है। यूएनईपी की रिपोर्ट से पता चलता है कि चीन की येलो नदी में 4.29 अरब टन औद्योगिक अपशिष्ट व सीवेज निरंतर आता रहता है। इसका पानी उपभोग के लिए अयोग्य है।इंडोनेशिया की सिटरम नदी में इतना कचरा पड़ चुका है कि इसका मरकरी लेवल 100 गुना बढ़ गया है। एशिया की सबसे लंबी नदी यांग्त्सी सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा ढोकर समुद्र में ले जा ही रही है। इसी तरह फिलीपींस की मारिलाओ, अर्जेंटीना की मटानजा रियाचुएलो नदी और इजरायल की जॉर्डन नदी भी जानलेवा प्रदूषण की चपेट में हैं।
कुछ देशों ने इस तरह की चुनौती को स्वीकार कर कारगर कदम उठाए हैं। जैसे चीन ने अपनी नदियों को बचाने के लिए पहले से ही 46 शहरों में संपूर्ण प्लास्टिक रिसाइक्लिंग की व्यवस्था कर दी है। जापान और फिलीपींस जैसे देश भी इसे लेकर गंभीर हैं, क्योंकि नदियों का प्रवाह बाधित हो जाना ठीक उसी तरह खतरनाक है, जैसे शरीर में धमनियों का जाम हो जाना। दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश में इस मुद्दे पर न तो कभी कोई गंभीर बहस होती है और न ही बड़े आंदोलन होते हैं। नामी-गिरामी लोगों की एकाध यात्राएं कुछ ध्यान जरूर खींच लेती हैं, पर उसका कोई ठोस परिणाम हाथ नहीं आता।

अब भी वक्त है नदियों को बचाने के लिए, अब हम आगे नहीं आए तो भयंकर परिणाम भुगतने होंगे।आज मोबाइल टावरों की जिस तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है, उसी तरह से हमारे घरों-कार्योलयों, कारों, बसों, मेल ट्रेनों और अब वातानुकूलित (एसी) लोकल ट्रेनों की वृद्धि हो रही है, उससे निश्चित रूप से गर्मी बढ़ रही है। इस बात का तो हमें ख्याल ही नहीं है। हम तो यूज और थ्रो की संस्कृति को इतना अधिक अपना चुके हैं कि इन सबको अपना स्टेटस सिंबल मान बैठे हैं। यहां तक कि गांवों में भी मिट्टी के बर्तनों में पानी रखने की परंपरा की जगह फ्रीज और बोतल बंद पानी ने ले ली है। ऐसे में पर्यावरणविदों की आत्मा दफन होने की राह देख रही है। हम पूर्व के लोगों पर पश्चिमी संस्कृति इस तरह हावी हो चुकी है कि हम वृक्षारोपण करने की जगह कृत्रिम फूलों में उसी तरह सुगंध खोज रहे हैं, जिस तरह से शेखचिल्ली जिस डाल पर बैठा था वही डाल काट रहा था। अत: हमें पर्यावरण संरक्षण की ओर युद्धस्तर पर जुटना होगा। हमें अपने जन्मदिन पर पौधे लगाने होंगे। यदि हमारे घर में किसी बच्चे का पहला जन्मदिन है तो 1 पौधा और किसी बुजुर्ग का 60 वां जन्मदिन है तो 60 पौधे लगाने होगें, अन्यथा हमारी प्यास बोतलों में ही बंद मिलेगी। आज हम जो सिंगल यूज प्लास्टिक का प्रयोग कर रहे हैं, उस पर पूर्ण विराम लगाना होगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवाधिकार हेतु पर्यावरण की रक्षा, पर्यावरण को समद्वशाली करना, उसकी अवेहलना पर विराम लगाना, निसर्ग एवं नैसर्गिक संसाधनों का संरक्षण करना है।

यदि हम यह करने में फेल होते हैं तो निश्चित रूप से हमें इसकी भारी कीमत चुकाने हेतु तैयार रहना होगा। इसीलिए मुझे आदमी के शायर अदम गोंडवी (रामनाथ सिंह) की गजल याद आ रही है-दिल के सूरज को, सलीबों पे चढ़ाने वालों। रात ढल जाएगी, इक रोज जमाने वालों। मैं तो खुशबू हूं, किसी फूल में बस जाऊंगा, तुम कहां जाओगे कांटों के बिछाने वालों। अर्थात आज आवश्यकता पर्यावरण बचाने की है, इसके लिए हमें पेड़-पौधों को अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा।अन्यथा वातानुकूलित घरों, कार्यालयों और गाडियां बढ़ते हुए टेम्परेचर के चलते राख हो जाएंगे और हमारा बचना भी मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा। ऐसे में कहीं हमारा सब कुछ राख होने से बचाने के लिए पौधे लगाते हुए फोटो खींचाने की परंपरा को त्यागकर सचमुच में पौधे लगाकर उसे पेड़ होने तक ही नहीं, अपितु आने वाली पीढियों के लिए सुरक्षित रखना होगा। ठीस उसी तरह से जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए पेड़ लगाया था। तब जाकर आने वाली पीढ़ियों को फल और उसकी छाव मिलेगी, जिससे पर्यावरण संतुलन कायम हो सकेगा।

यदि हम यह सोचें कि एक अकेले हमारे पेड़ लगाने से क्या होगा तो हमारी यह सोच गलत है, क्योंकि मैंने देखा है कि मुंबई उपनगर में रहने वाले एक अकेले उच्च शिक्षित नि:स्वार्थी प्रकृति प्रेमी व्यक्तित्व डॉ.सचिन बाजीराव खंदारे को, जिन्होंने मुंबई से लेकर अकोला तक बहुत सारे पेड़ लगाये हैं। वे बिना किसी प्रसिद्धि के समय निकालकर पेड़ लगाते आ रहे हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि सचमुच में एक अकेले व्यक्ति के अंदर कुछ करने का जज्बा हो तो वह अकेले ही काफी है। आज हम सभी को डॉक्टर साहेब से सीख लेने की आवश्यकता है, तब जाकर प्रकृति का संतुलन कायम हो सकेगा।

 (लेखक समाजसेवी शिक्षाविद् एवं महाराष्ट्र के सामाजिक चिंतक हैं।)

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