मनमोहन सिंह
उत्तराखंड में आजकल लोकसभा चुनाव का नशा सिर चढ़कर बोल रहा है। उत्तराखंड में बहुत सारे ऐसे मसले हैं, जिन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। उनमें से एक है खेती-किसानी का मसला। उत्तराखंड राज्य में ७० फीसदी से अधिक भू-भाग वन क्षेत्र है, जिसके चलते खेती के लिए बेहद सीमित भूमि बची है। हैरानी की बात यह है कि इतने अहम मसले पर न कोई कुछ बोल रहा है और न ही चुनावी मेनिफेस्टो में उसका कोई जिक्र है। खेती-किसानी का छूटना उत्तराखंड के लिए न सिर्फ चिंताजनक है, बल्कि आने वाले दिनों के लिए खतरे की घंटी है।
२००० में नवीन राज्य गठन के बाद से अब तक दो लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई है। राज्य गठन के समय उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल ७.७० लाख हेक्टेयर था, जो २४ सालों में घट कर ५.६८ लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि उत्तराखंड में खेती का रकबा साल-दर-साल कम होता जा रहा है। हालांकि, खेती के रकबे के कम होने की कई वजहें हैं। पलायन के बाद उत्तराखंड में वीरान पड़ते जा रहे इलाकों में जंगली जानवरों की दखलअंदाजी बड़ी तेजी से बढ़ी है। हालत यह है कि बंदर, सूअर, भालू जैसे जंगली जानवर खेती को उजाड़ कर चले जाते हैं। किसानों के पास बर्बाद फसल को देखने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता, क्योंकि जानवरों को मारना अपराध है। फसलों का बर्बाद होना किसान के लिए बड़ा दुख होता है लेकिन उससे बड़ा दुख तब होता है, जब बाघ, गुलदार, चीते इंसान को अपना शिकार बनाते हैं।
मवेशियों को शिकार बनाते हैं जंगली जानवर
इन जंगली जानवरों द्वारा मवेशियों का शिकार अब आम बात है। जंगली जानवरों के साथ-साथ सिंचाई सुविधा का अभाव, बिखरी कृषि जोत के कारण लोग न सिर्फ खेती छोड़ रहे हैं, बल्कि पलायन की भी यह मुख्य वजह है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारें योजनाओं का मरहम तो लगा रही हैं फिर भी उत्तराखंड में उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। खासतौर पर राज्य के पर्वतीय इलाकों में कभी मंडुवा, झंगोरा, लाल चावल, भट, गहत, राजमा, मटर की खेती से हरे-भरे रहने वाले खेत आज उजाड़ हो चुके हैं। किसानों की अपनी मजबूरी है और सरकार को इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं।
अंजाम तक नहीं पहुंची चकबंदी
उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बिखरी कृषि जोत परेशानी का सबसे बड़ा सबब है। दर्शन सिंह बताते हैं कि १९६२ से आज तक जमीनों का बंदोबस्त नहीं हुआ है। यहां पर एक खेत पहाड़ के इस पार तो दूसरा खेत दूसरी ओर है, जिससे खेतीबाड़ी में मेहनत ज्यादा लगती है। दूर-दराज खेतों की वजह से फसलों की रखवाली भी नहीं हो पाती। सरकारों ने चकबंदी की पहल की थी, लेकिन पहल अंजाम तक नहीं पहुंच पाई।
कब चेतेगी सरकार?
उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव में खेती और किसानी राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख मुद्दा नहीं है। मौसम, जंगली जानवर और सरकार की अनदेखी के चलते उत्तराखंड के किसान अब देर-सवेर आंदोलन की राह पकड़ लें तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी। खुद को किसाने की पुरोधा का दावा करने वाली सरकार को अब चेत जाना चाहिए।
सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं
उत्तराखंड की कुल कृषि क्षेत्रफल का ४९.५५ फीसदी पर्वतीय क्षेत्र में आता है। शेष ५०.४५ फीसदी मैदानी व तराई का क्षेत्र है। पर्वतीय इलाकों में मात्र १२.०६ फीसदी कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है। फसलों की पैदावार के लिए किसानों को बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में यदि समय पर बरसात दगा दे देती है तो उसका सीधा-सीधा असर किसानों पर पड़ता है। अधिकतर किसानों को बाजार से अनाज खरीद कर अपना पेट भरना पड़ता है। मंडुवा, झंगोरा, चौलाई, राजमा, गहथ, काला भट्ट परंपरागत फसलें हैं। श्री अन्न योजना से मोटे अनाज की मांग तो बढ़ी, लेकिन पैदावार घटती गई। राज्य गठन के बाद मंडुवा का क्षेत्रफल आधा हो गया है। २००१-०२ में प्रदेश में मंडुवे का क्षेत्रफल १.३२ लाख हेक्टेयर था, जो २०२३-२४ में घट कर ७० हजार हेक्टेयर रह गया है।
फसल बीमा योजना का नहीं मिलता लाभ
भले ही यह दावा किया जाता है कि फसल बीमा उत्तराखंड के किसानों के लिए एक सौगात है, लेकिन उसके जो मानक हैं उसके चलते किसानों को उसका फायदा नहीं मिल पाता। मौसम या फिर अन्य प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हर साल फसलें बर्बाद होती हैं। फसल बीमा योजना के तहत मानकों के अनुसार, ३३ फीसदी से अधिक नुकसान होने पर ही मुआवजा दिया जाता है। यानी नुकसान का प्रतिशत इससे कम है तो मुआवजा नहीं दिया जाता। २०२३-२४ में ८६,३७६ किसानों ने फसल बीमा कराया है, जिसमें कुल २३,७१२ हेक्टेयर कृषि क्षेत्र शामिल है।