मनमोहन सिंह
२००० में अस्तित्व में आए उत्तराखंड में पांच लोकसभा सीटें हैं। उत्तराखंड में सभी पांच संसदीय सीटों पर पहले चरण में १९ अप्रैल २०२४ को मतदान होगा, वहीं चार जून को मतगणना होगी। इन पांच सीटों में हरिद्वार संसदीय सीट, टिहरी गढ़वाल संसदीय सीट, पौड़ी गढ़वाल संसदीय सीट, अल्मोड़ा संसदीय सीट और नैनीताल संसदीय सीट शामिल हैं।
अल्मोड़ा संसदीय सीट में पिथौरागढ़ जिला, बागेश्वर जिला, अल्मोड़ा जिला, चंपावत जिला, नैनीताल संसदीय सीट में नैनीताल जिला, ऊधम सिंह नगर जिला, टिहरी संसदीय सीट में टिहरी जिले के कुछ विधानसभा क्षेत्र, उत्तरकाशी जिला, देहरादून जिले के कुछ विधानसभा क्षेत्र, हरिद्वार संसदीय सीट में देहरादून जिले के कुछ विधानसभा क्षेत्र, हरिद्वार जिला और पौड़ी गढ़वाल संसदीय सीट में चमोली जिला, रुद्रप्रयाग जिला, टिहरी जिले के कुछ विधानसभा क्षेत्र, पौड़ी जिला व नैनीताल जिले के कुछ विधानसभा क्षेत्र हैं।
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद नवनिर्मित राज्य में वर्ष २००४ में हुए पहले लोकसभा चुनावों में मिश्रित जनादेश आया। २००९ में फिर से जनता ने कांग्रेसी उम्मीदवारों के पक्ष में जनादेश सुनाया। वर्ष २०१४ के चुनावों में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने पांचों सीटों पर कांग्रेस का सफाया कर उससे हिसाब चुकता किया। २०१९ में भी उत्तराखंड की जनता ने भाजपा को निराश नहीं किया। इस दफा कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कांटे की टक्कर है। हालांकि, उत्तराखंड क्रांति दल यानी यूकेडी जिसने उत्तराखंड अलग राज्य के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किया वह हासिए पर चली गई दिखती है।
खैर, अब बात करते हैं राज्य के मतदाताओं की। यहां के मतदाता मतदान के प्रति बहुत ज्यादा संजीदा नहीं दिखते। राज्य के तेरह जिलों में से कुछ जिलों को छोड़ दें तो आज तक हुए चुनाव में अधिकांश का आंकड़ा पचास फीसदी के पार नहीं गया होगा। इसे उत्तराखंड राज्य की सियासत की कड़वी हकीकत कहना ही लाजिमी है, क्योंकि सियासतदानों की अनदेखी के चलते राज्य के गांव खाली होते चले गए और रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से काफी हद तक वंचित उत्तराखंडियों ने शहर की ओर रुख किया, जिसका सीधा असर मतदान के प्रतिशत पर पड़ा। पलायन के साथ-साथ दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्रों में आवाजाही की सुगम व्यवस्था का न होना भी मतदाताओं की बेरुखी की वजह है।
१,७९२ गांव निर्जन तो २४ घोस्ट विलेज घोषित
पलायन आयोग की रिपोर्ट के आंकड़ों की मानें तो वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार राज्य में निर्जन और वीरान हो चुके गांवों की संख्या १,०३४ के आस-पास थी। लेकिन २०१८ में यह संख्या बढ़कर १,७६८ पहुंच गई। वर्ष २०२२- २३ तक यह संख्या १,७९२ तक पहुंच गई है। इसके अलावा प्रदेश में २४ गांव ऐसे हैं, जो घोस्ट विलेज की सूची में दर्ज हो चुके हैं। पलायन की वजह बताते हुए एडवोकेट राजूनाथ गोस्वामी कहते हैं कि ५० फीसदी ने रोजगार के लिए, १५ फीसदी ने शिक्षा के लिए और ९ फीसदी लोगों ने बेहतर उपचार-इलाज के लिए मजबूरी में इस खूबसूरत उत्तराखंड को छोड़ दिया।
सुविधाओं का अभाव
आयोग की रिपोर्ट से निराशा उस वक्त और भी होती है, जब उसमें इस बात का जिक्र होता है कि आज भी उत्तराखंड में पारंपरिक खेती की तस्वीर पांच साल पहले जैसी ही है, जो काफी निराशाजनक है। आंकड़ों पर गौर करें तो बुनियादी सुविधाओं के अभाव में राज्य में अब तक ३,९४६ गांवों के १.१८ लाख लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं, जबकि ६,३३८ गांवों के ३.८३ लाख व्यक्ति अस्थायी रूप से अन्यत्र चले गए है। उत्तराखंड में पलायन की दर ३६.२ फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। इस कारण राज्य के १,७९२ गांव पूरी तरह वीरान हो चुके हैं। हालांकि, इस मसले को सुलझाने के लिए सरकार ने २०१८ में ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग गठित किया। उसने अपनी रिपोर्ट में पलायन की हालत व वजहों के साथ ही समाधान के उपाय सुझाए हैं। जिन पर काम करने के सरकार दावे भी कर रही है, लेकिन हकीकत तो यह है यह सब दूर की कौड़ी है क्योंकि इस मामले में सरकार की गंभीरता सिर्फ ओछी ही लगती है। आयोग की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र भी है कि अस्थायी पलायन इसी दर से होता रहा तो अगले पांच वर्षों में यह आंकड़ा छह लाख के ऊपर होगा।
राजनीतिक दलों ने भी माना
सभी राजनीतिक दलों ने माना है कि उत्तराखंड में पलायन एक अहम मसला है, जिस पर चर्चा भी हमेशा होती रही है। लेकिन यह बात जुदा है कि पलायन रोकने के लिए यहां सियासतदां के तमाम दावे वास्तविकता तब्दील होने की बजाय सरकारी आंकड़ों में दम तोड़ते नजर आते हैं। उत्तराखंड के ग्रामीण विकास और पलायन निवारण आयोग की रिपोर्ट पर यदि भरोसा करें तो पिछले पांच सालों में उत्तराखंड के गांवों से पलायन की दर में गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन रिपोर्ट यह भी कहती है कि आज भी उत्तराखंड के गांवों से पलायन जारी है। रिपोर्ट के अनुसार, अल्मोड़ा, टिहरी और पौड़ी का शुमार स्थायी पलायन का दंश झेलने वाले सर्वाधिक प्रभावित जिलों में हैं। पिछले पांच सालों में अल्मोड़ा से ५,९२६, टिहरी से ५,६५३, पौड़ी से ५,४७४ लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है। वहीं ऊधमसिंह नगर से ८२, देहरादून से ३१२, रुद्रप्रयाग से ७१५, उत्तरकाशी से ९००, हरिद्वार से १०२९, नैनीताल से २०१४, चमोली से १७२२, पिथौरागढ़ से १७१३, चंपावत से १५८८, बागेश्वर से १४०३ परिवारों ने स्थायी रूप से पलायन किया है।