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विकास मार्टम : ईवी निर्माण और पिछड़ती मारुति, जिम्मेदार कौन?

अनिल तिवारी
मुंबई

पिछले कुछ अंकों में हमने देश के ऑटोमोबाइल विकास की कथित नीति का गहराई से पोस्टमार्टम किया। एक दशक के भ्रम और ईवी सेक्टर की तमाम खामियों से पर्दा उठाया। क्योंकि ईवी अब सिर्फ परिवहन का उम्दा विकल्प ही नहीं, पर्यावरण को बचाने का बेहतर पर्याय भी है, यह हमारे वजूद का आधार भी है। सो, अब आगे…

माना देश में इलेक्ट्रिक वेहिकल (ईवी) की सेल्स बढ़ी है पर क्या यह हमारे दम पर है या चीन से आयात की कीमत पर? उसी चीन से, जिसने ईवी पर अपनी नीति सख्त कर रखी है। वो किसी अन्य देश को इस मामले में आगे आने देना ही नहीं चाहता। उसने अपने ऑटोमेकर्स को टेक्नोलॉजी सीक्रेट रखने की हिदायत दी है। बीवाईडी और चेरी जैसी कंपनियां स्पेन, थाईलैंड जैसे देशों में विनिर्माण फेसेलिटी स्थापित करने वाली थीं, पर अब वे सतर्क हैं और हमारे यहां हालात ये हैं कि हम हमारी अपनी मारुति सूजूकी तक को अब तक ईवी बाजार में नहीं उतार पाए हैं। देश की नंबर-१ ऑटोमोबाइल कंपनी, सामान्य लोगों की कार निर्माता ईवी मैन्युफैक्चरिंग से दूर है, पिछड़ी हुई है। उसका सबसे बड़ा शेयर हथियाने वाली जापानी हुंडई तक ईवी ले आई है। चीनी कंपनियां तो बाजार लूट ही रही हैं, पर मारुति की एक भी ई-कार सड़क पर नहीं है। यहां तक कि दुनिया की प्रीमियम कार बनानेवाली कंपनियां भी ई-कार बनाने लगीं हैं। पोर्शे, बुगाटी, वोल्वो, बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज, जैगुआर इत्यादि अनेक कंपनियां ईवी में आ चुकी हैं। तब भी, जब उनके ग्राहक किफायती कार नहीं, महंगे स्टेटस सिंबल चाहते हैं। कीमतों की परवाह नहीं करते। कीमत और किफायत देखता है तो आम इंसान और उसी के लिए कारें बनाने का दावा करने वाली मारुति, ईवी का भविष्य ही नहीं समझ पा रही। देशी अशोक लीलैंड तक ने ई-ट्रक तैयार कर लिया है। उनका प्रोडक्ट तैयार है। कुछ अन्य कंपनियां भी ई-टेंपो और ई-ऑटो उतार चुकी हैं, पर मारुति अभी भी बाजार का मूड पढ़ रही है। यही कारण है कि देश में अभी तक ई-कार सेल्स २ प्रतिशत भी नहीं हो पाई है। दो पहिया सेगमेंट में अच्छी मांग है, बावजूद भरोसे की कमी से उसे अपेक्षित बल नहीं मिल रहा। सरकार ने ओला जैसी कंपनियों को लेकर उपभोक्ताओं की शिकायतों पर गौर ही नहीं किया। उसे नोटिस तब मिला, जब हालात हद पार हो गए, जबकि इस सेगमेंट में इंडस्ट्री के लिए काफी पोटेंशियल हैं। इस पोटेंशियल को हासिल करने में सरकार इंडस्ट्री की मदद करती तो उसे न केवल जीडीपी व राजस्व का जबरदस्त लाभ मिलता, बल्कि देश में बेरोजगारी का संकट भी काफी हल हो जाता। पर हालात ये हैं कि आज एक दशक बाद भी सरकार ई-सेक्टर में पर्याप्त फोकस ही नहीं कर पाई है। जबकि भारत में वैश्विक स्तर के तमाम ऑटो मैकर्स हैं, जिन्हें प्रौद्योगिकी व निवेश की कमी नहीं है, कमी है तो सरकारी प्रोत्साहन की। मात्र १० हजार करोड़ की फेम-२ योजना उन्हें अपेक्षित बल नहीं देती। २६ हजार करोड़ की प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव योजना है पर वो इंडस्ट्री के आकार के समक्ष नाकाफी है।
यदि सरकार २०३० तक नए वाहनों में ३० प्रतिशत ईवी का टारगेट हासिल करना चाहती है तो उसे बहुत पहले ही कई करेक्टिव मेजर्स उठा लेने चाहिए थे। चीन की तरह इंडस्ट्री के लगभग पार्टनर के तौर पर काम करना चाहिए था। आर एंड डी निवेश के अलावा, ड्राइविंग रेंज बढ़ाने, लागत कम करने, उपभोग का दायरा बढ़ाने, बैटरी लाइफ और क्वालिटी सुधारने, लिथियम आयन के पर्यायी तत्व खोजने, बैटरी उत्पादन पर फोकस करने समेत विस्तृत चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने व सस्ते रिचार्ज विकल्प उपलब्ध कराने पर काम करना चाहिए था। बजाय इसके परिवहन मंत्री अभी से इस आशय पर पहुंच गए हैं कि देश के ईवी सेक्टर को अब सब्सिडी की जरूरत नहीं है, प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है। तो क्या जरूरत है तो केवल उनके विभाग को भ्रष्टाचार की, लूट की? इस सरकारी मनोदशा के साथ देश में ईवी रिवॉल्यूशन नहीं होगा। यह हमारे दम पर तो कम से कम नहीं ही होगा, फिर भी यदि हमें यह सपना साकार करना ही है तो यह चीनी आयात के सहारे ही संभव है। लेकिन जब ईवी के लिए चीन पर हमारी निर्भरता बनी ही रहनी है तो मिडिल ईस्ट के क्रूड पर निर्भरता कम करके भला हम क्या हासिल कर लेंगे?
कुल मिलाकर परिवहन मंत्री पूरा बोझ जनता के कंधों पर डालकर सफलता का सेहरा अपने माथे बांधना चाहते हैं। जनता ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के तहत ईवी में भारी निवेश किया है। यदि सरकार ने भी अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन किया हो तो माननीय मंत्री बताएं? बताएं कि जब वे न तो ईवी इंडस्ट्री को छोटी-मोटी सब्सिडी देने के हक में हैं, न ही इसके लिए पर्याप्त इको सिस्टम ही बना पाएं हैं। और उस पर केवल देश में ईवी की बढ़ती बिक्री से वे समाधानी हो गए हैं, तो ऑटो क्रांति कैसे होगी? उनकी इस मानसिकता के साथ तो ईवी क्रांति संभव नहीं है। जब तक सरकार, पॉलिसी मेकर्स और इंडस्ट्री मिलकर गंभीरता से काम नहीं करते, बदलाव संभव नहीं है। इस पर विचार करना होगा और यह भी विचार करना होगा कि जब सरकार देश की सबसे बड़ी ऑटो मोबाइल कंपनी को अब तक ईवी बनाने को मजबूर नहीं कर सकी, ई-सेक्टर में समय से उतार न सकी, तो क्या इस असफलता पर गंभीर मंथन नहीं होना चाहिए? विदेशी कंपनियां यहां आकर ईवी बेचती रहें और देसी कंपनियां ताकती रहें, क्या यह देश के नजरिए से उचित है? क्या यह सरकार की नाकामी नहीं?

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