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विकास मार्टम : फ्यूल कैप का रंग रोक सकता है …२००० करोड़ का नुकसान!

अनिल तिवारी
मुंबई

अगर कोई आपसे कहे कि आपकी कार के ‘फ्यूल कैप’ का रंग, कभी न कभी आपको बड़ी मुसीबत में डाल सकता है, तो आप उस पर हसेंगे, कतई विश्वास नहीं करेंगे। तो यहां आपके लिए यह जान लेना बेहद जरूरी है कि फ्यूल कैप के रंग में एक बड़ी समस्या छुपी है और उसी में छुपा है समस्या का समाधान भी। आप कहेंगे कि भाई, फ्यूल कैप के रंग से भला क्या फर्क पड़ता है? यह कैसे किसी को समस्या में डाल सकता है या उसे समस्या से छुटकारा दिला सकता है? और वैसे भी दुनिया भर के सभी वाहनों की फ्यूल कैप का रंग अमूमन एक समान ही तो होता है, काला! और यदि यह रंगीन भी हो जाए, तब भी भला इससे ऐसा कौन सा क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा कि लोग बड़ी मुसीबत से बच सकें? तो इसका सीधा सा जबाव है ‘रॉन्ग फ्यूलिंग’ की समस्या से छुटकारा। कैसे? चलिए आज यही समझते हैं।
सबसे पहले हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर यह ‘रॉन्ग फ्यूलिंग’ की समस्या होती क्या है? और कैसे यह दिन-ब-दिन, न केवल विकराल हो रही है, बल्कि इससे होने वाला खामियाजा भी लगातार बढ़ता जा रहा है? आपने कार चलाते वक्त ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ वाले ‘कॉशन बोर्ड’ कई बार देखे होंगे। सावधान भी हुए होंगे। परंतु जब आप कार रोककर फ्यूलिंग कराते हैं तो कभी-कभार लापरवाह भी हो जाते हैं। फ्यूल भरवाते वक्त आपकी इसी छोटी सी लापरवाही से पेट्रोल कार में डीजल, या डीजल कार में पेट्रोल पड़ जाता है। यही ‘रॉन्ग फ्यूलिंग’ कहलाता है। एक बेहद गंभीर और पेचीदी समस्या है यह। अमूमन कार चलाने वाला हर शख्स जानता है कि रॉन्ग फ्यूलिंग की समस्या होने पर, न केवल फ्यूल टैंक का सारा र्इंधन फेंकना पड़ता है, बल्कि कार का इंजिन भी इससे ब्लॉक हो सकता है। उस पर यदि समय रहते चालक ने इंजिन बंद नहीं किया तो इंजिन डाउन की समस्या अलग से। जो ५०-६० हजार से लेकर दो-ढाई लाख रुपए तक के खर्चे में धकेल सकती है। असल में, हमारे देश में अधिकांश वाहन मुख्यत: डीजल और पेट्रोल से ही चलते हैं। लिहाजा, अधिकांश फ्यूल स्टेशनों पर दोनों ही तरह के ईंधन भी उपलब्ध होते हैं। चूंकि, आज के वक्त में तमाम ऑटो मेकर्स, एक ही मॉडल-डिजाइन के वाहनों को पेट्रोल और डीजल फ्यूल वेरिएंट में उतारते हैं, तो केवल वाहनों को देखकर उनके सही-सही फ्यूल वेरिएंट का पता लगाना मुश्किल होता है। इससे फ्यूल स्टेशनों पर वाहनों को लेकर कन्फ्यूजन आम बात है। यही ‘रॉन्ग फ्यूलिंग’ का बड़ा कारण है।
पेट्रोल और डीजल के रासायनिक गुणधर्म अलग-अलग होते हैं, जो विपरीत वेरिएंट के इंजिन में जाते ही उसे ब्लॉक कर देते हैं। तब हजारों-लाखों रुपए के अनपेक्षित खर्च, बेइंतहा समय की बर्बादी और लड़ाई-झगड़े की नौबत के अलावा कोई चारा नहीं बचता। वाहन की वॉरंटी खत्म हो जाती है वो अलग से। यदि किसी तरह दूषित-मिश्रित ईंधन को इंजिन तक पहुंचने से रोक भी लिया जाए, तब भी ईंधन टंकी से उस घातक मिक्सड ईंधन को निकालने, टंकी को साफ करने व पूरी ईंधन प्रणाली को दोषमुक्त कर, घातक ईंधन के बेकार होने पर हजारों-लाखों रुपए की बर्बादी होती है। मैं खुद इस समस्या का भुक्तभोगी रहा हूं, जहां हमारे एक सहयोगी की लापरवाही से मेरी पेट्रोल कार में डीजल भरा गया था। चूंकि मेरी कार कंपनी फिटेड सीएनजी ऑप्शन वाली थी, लिहाजा उसके सेफ्टी फीचर ने इंजिन को तुरंत बंद कर दिया। तब भी हम तकरीबन रु १०,००० से अधिक खर्च के फेर में आ चुके थे। मिक्सड फ्यूल की बर्बादी, फ्यूल टैंक निकालकर उसे वॉश करवाने, फ्यूल लाइन साफ करवाने इत्यादि के लंबे प्रोसीजर से हमें गुजरना पड़ा था। परंतु अधिकांश मामलों में यह सेफ्टी फीचर नहीं होता। सो, इंजिन काले धुएं के साथ तेज आवाज करके जाम हो जाता है। देश के हर एक फ्यूल स्टेशन पर औसतन ऐसे २ से ३ मामले सालाना देखने को मिल ही जाते हैं। सुनने में यह आंकड़ा छोटा सा लग सकता है। परंतु जब आप देश के हजारों फ्यूल स्टेशन के साथ इसकी गणना करेंगे तो ओवरऑल नुकसान का आपको सहज ही अनुमान हो जाएगा।
३१ दिसंबर २०२२ तक हमारे देश में कुल मिलाकर ८५,५२९ पेट्रोल पंप कार्यरत थे। जो उससे पहले के ५ वर्षों की तुलना में करीब ४० प्रतिशत अधिक थे। इस आधार पर आज के आंकड़ों का अनुमान लगाएं तो इस समय देश में लगभग ८७ से ८८ हजार के करीब फ्यूल स्टेशन हो सकते हैं। जहां जीवाश्म र्इंधन अर्थात पेट्रोल और डीजल के विक्रय का काम होता है। इन सभी स्टेशंस पर सालाना २ से ३ रॉन्ग फ्यूलिंग को ही आधार मान लें, तब भी देशभर में ऐसे ढाई से तीन लाख मामले हर वर्ष होने का अंदेशा है, जिससे औसतन ५० से ६० लाख लीटर फ्यूल की बर्बादी और वाहनों के भारी भरकम मैकेनिकल खर्च का अनुमान है। इस अनुमान के आधार पर इससे जहां सालाना २०० करोड़ के करीब फ्यूल की बर्बादी होती होगी तो उससे १० गुना से ज्यादा मैकेनिकल मरम्मत के खर्च का बोझ भी बढ़ता होगा। जो कुल मिलाकर दो से ढाई हजार करोड़ का हो सकता है। तो अब सवाल यह उठता है कि भला इसका कार फ्यूल कैप के रंग से क्या नाता है? तो यहां आपके लिए यह समझना बेहद जरूरी है कि फ्यूल पंप पर फ्यूल कन्फ्यूजन से बचने के लिए नोब तो अलग-अलग रंगों की लगी होती हैं, जैसे, डीजल के लिए नीले रंग की तो पेट्रोल के लिए हरे रंग की नोब होती है। इससे कर्मचारी तो सतर्क रहता है कि वह कौन सा फ्यूल डाल रहा है पर वाहनों के फ्यूल कैप पर कोई निश्चित कलर स्पेशिफिकेशन नहीं होता। इससे अनजाने में कई बार गलत फ्यूल भर दिया जाता है। यदि यहां भी फ्यूल पंप की तर्ज पर ही वाहनों की टंकी पर लगी कैप का रंग भी (पेट्रोल के लिए हरा और डीजल के लिए नीला) निर्धारित कर दिया जाए तो कन्फ्यूजन की समस्या से लगभग छुटकारा मिलने के साथ-साथ कर्मचारी की जिम्मेदारी भी तय हो सकती है। जब फ्यूल स्टेशनों पर पेट्रोल और डीजल के बीच का अंतर रेखांकित है तो वाहनों की फ्यूल कैप काले ही रंग की क्यों बनाई जाती हैं?
भारत जैसे गरीब व विकासशील देश में हर साल होने वाले इतने भारी नुकसान को रोकने के लिए परिवहन विभाग को ‘फ्यूल कैप’ के कलर स्पेसिफिकेशन की जरूरत है। इस मामूली से रंग परिवर्तन से, न केवल देश को हर वर्ष दो से ढाई हजार करोड़ के नुकसान से निजात मिल सकेगी, बल्कि वाहन उपभोक्ता भी कई खर्चीली समस्याओं से बच सकेगा। ‘रॉन्ग फ्यूलिंग’ की समस्या से निजात पा सकेगा। इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में एक छोटा-सा आदेश जारी कर ऑटो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को फ्यूल कैप के रंगों को निर्धारित करने का आदेश दे। यदि ऐसा होता है तो महज कुछ ही दिनों में, बिना किसी अतिरिक्त खर्च या व्यवस्था बदलाव के देश का करोड़ों रुपयों का फ्यूल बच सकता है। ऑटो मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के लिए फ्यूल कैप स्पेशिफिकेशन अनिवार्य हो जाए तो ईंधन रिफिलिंग के वक्त वाहन विशेष का फ्यूल स्पेसिफिकेशन पूछने की जरूरत ही नहीं बचेगी और ईंधन की बर्बादी, इंजिन के नुकसान, आए दिन के लड़ाई-झगड़ों व कानूनी दांवपेचों से मुक्ति के अलावा करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा भी बचाई जा सकेगी। देश की इकोनॉमी को पहुंचने वाले बेजा नुकसान को रोका जा सकेगा। बहुमूल्य ईंधन के आयात पर निर्भर हिंदुस्थान का लाखों लीटर ईंधन और करोड़ों रुपए का विदेशी राजस्व बचाया जा सकेगा।

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