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विकास मार्टम : आबादी का १ प्रतिशत भी नहीं ढो पा रही रेलवे! … पीड़ा प्रीमियम फोकस की!

अनिल तिवारी
मुंबई

कोई भी समस्या रातों-रात पैदा नहीं होती, न ही रातों-रात किसी समस्या का समाधान मिल सकता है। तब दोनों ही परिस्थितियों में हालात बेकाबू हो जाते हैं। समस्या को आपदा बना देते हैं। इन दिनों भारतीय रेलवे की यही तस्वीर है। कुछ एक दशक पहले तक त्योहारी सीजन में यात्रियों की जो भीड़ रेलवे के लिए केवल एक समस्या हुआ करती थी, आज वह भीषण आपदा में तब्दील हो चुकी है। क्यों? तो केवल इसलिए कि पिछले दशकभर में सरकार ने इस समस्या को अपने हाल पर ही छोड़ दिया था। यह समस्या सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं थी। सो, नतीजा वही हुआ, जो होना था। ७,००० अतिरिक्त ट्रेनों का दावा भी बेअसर साबित हो गया। यह ये दर्शाने के लिए काफी है कि समस्या कितनी विकराल हो चुकी है और भविष्य में इसके कितने घातक दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। यदि अब भी इसके निदान पर काम नहीं किया गया तो हालात और भी बदतर हो सकते हैं।
२०१४ में सत्ता परिवर्तन को जनता बेहद उम्मीद से देख रही थी। भाजपा का नारा भी ‘सबका’ विकास वाला था पर जब बात रेलवे की आई तो मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में ‘सब’ का समावेश ही नहीं हुआ। रेलवे बजट बंद होते ही सामाजिक प्रतिबद्धता की पारदर्शिता ही खत्म हो गई। नई ट्रेनों की घोषणाएं बंद हो गर्इं, भरोसा दिलाया गया कि ‘अब रेलवे में नाम के लिए नहीं, बल्कि काम के लिए काम होंगे।’ लोगों ने विश्वास कर लिया क्योंकि बात ‘सबके विश्वास’ की भी थी। उम्मीद थी कि हालात सुधरेंगे। सरकार का पहला कार्यकाल खत्म हुआ। हालात नहीं सुधरे। समस्याएं आपदा बनने लगीं। हालात साल दर साल काबू से बाहर होते रहे और सरकार ‘रेलवे रिफॉर्म’ की माला जपती रही। तब जनता के हिस्से आई तो केवल भगदड़ और मारामारी।
परंतु यह भी केवल समस्या की शुरुआत ही थी। सरकार के दूसरे कार्यकाल में तो हालात और भी खराब होने लगे। सत्ताधीशों की नींद नहीं टूटी। रफ्तार के नशे में जनसामान्य की जरूरतें नजरअंदाज हो गर्इं। आरामदायक यात्रा के दिखावे में आम यात्रा भुला दी गई। फोकस प्रीमियम ट्रेनों पर ही बना रहा। नि:शुल्क सुविधाएं, स:शुल्क हो गईं। दूसरे कार्यकाल में भी मुनाफे का मोह सामाजिक जिम्मेदारियों पर हावी रहा। फेस सेविंग और आईवॉश के लिए अंत्योदय और दीनदयालु जैसे ‘अमृत’ उपाय हुए, पर वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान थे। सामान्य श्रेणी के यात्रियों की असामान्य समस्या के लिए युद्धस्तर पर जितने प्रयास होने चाहिए थे, उसका अंश मात्र भी नहीं हुआ।
इस बात से खुद रेलवे प्रशासन भी इनकार नहीं कर सकता कि पिछले दशकभर में सेवा से द्वितीय श्रेणी के स्लीपर कोचेस की संख्या अपेक्षाकृत कम हुई है, जिसका सीधा असर देश के करोड़ों यात्रियों पर पड़ा है। जहां इन्हें दो गुना, चार गुना बढ़ाने की आवश्यकता थी, न जाने किस योजना के तहत इनमें कटौती की जा रही है। यह तो शायद ‘नीति आयोग’ भी न बता पाए! आज इस कमी का असर दिवाली और छठ की भगदड़ के रूप में नजर आ रहा है। रेलवे के डिब्बों में दमघोंटू यात्रा के रूप में दिख रहा है। कुछ एक दशक पहले तक ऐसे नजारे केवल अनारक्षित जनरल कोच में ही नजर आते थे पर अब ये आरक्षित द्वितीय श्रेणी स्लीपर से होते हुए ३ टियर एसी व एसी सेकंड क्लास तक नजर आने लगे हैं। सरकार यदि यूं ही आंख मूंदे रही तो आने वाले वक्त में प्रथम श्रेणी वातानुकूलित का भी यही हाल होगा। हालात बेकाबू होंगे। लोग सामान्य टिकटें लेकर आरक्षित डिब्बों में घुसने को मजबूर होंगे। पाकिस्तान रेलवे से हमारी तुलना हो रही होगी।
भारतीय रेलवे के पास इस समय तक विभिन्न श्रेणियों के ८५ हजार कोच ही हैं, जिन्हें प्रतिदिन ८ हजार ट्रेनों के संचालन में इस्तेमाल किया जाता है। देश की जनसंख्या के आधार पर यह बेहद कम है। २०-२२ डिब्बों की एक ट्रेन की अधिकतम यात्री क्षमता १,५०० से १,८०० यात्रियों की होती है। आज उसमें ५ से ७ हजार यात्री यात्रा कर रहे हैं। यह एक खतरनाक स्थिति को आमंत्रण है। कोच के पैसेज से लेकर टॉयलेट तक ठूंस-ठूंसकर यात्री भरे हुए हैं, जो आपातस्थिति में बड़ा संकट खड़ा कर सकते हैं।
प्रतिदिन भारतीय रेलवे में ढाई से ३ करोड़ के बीच यात्री यात्रा करते हैं। १४० करोड़ की आबादी के लिहाज से यह कोई बड़ा आंकड़ा नहीं है। देश की समग्र आबादी का मुश्किल से २ फीसदी भी नहीं है। उसमें भी १ प्रतिशत से अधिक तो उपनगरीय यात्री हैं। इस आधार पर देखें तो देश की रोजाना १ प्रतिशत से भी कम आबादी लंबी दूरी की रेल यात्रा कर रही है। इसे भी हैंडल करने में भारतीय रेलवे असफल साबित हो रही है। खासकर, ऐसे मौकों पर जब त्योहारों में लंबी दूरी के यात्रियों की संख्या १ प्रतिशत से बढ़कर अधिकतम डेढ़ से २ प्रतिशत होती होगी। क्या हमारा नेशनल करियर डेढ़ २ प्रतिशत आबादी को भी यात्रा नहीं करा सकता? आजादी के अमृत महोत्सव कालखंड तक क्या हम इतनी उपलब्धि भी हासिल नहीं कर सके हैं? यदि इतनी सी भीड़ में भी रेलवे की सांस फूलने लगे तो इसे नियोजनकर्ताओं की असफलता ही माना जाएगा। वे न तो बढ़ती जनसंख्या पर ही रोक लगा पाने में सफल हुए हैं, न ही जनसंख्या के आधार पर रेल सुविधा ही मुहैया करा सके हैं। जबकि रेल यात्रा देश के हर नागरिक का अधिकार है और इसके लिए नेशनल करियर होने के नाते भारतीय रेलवे की प्रतिबद्धता होनी ही चाहिए।
रेलवे मुनाफे का साधन नहीं है, वह अपनी जिम्मेदारियां से मुक्त नहीं हो सकती। उसके यात्री भी ‘लाडले’ यात्रियों की श्रेणी के हकदार हैं। भले ही उन्हें अनुदान न मिले पर यात्रा का अधिकार तो मिलना ही चाहिए। यह भी तो आपकी वोट बैंक ही है। क्या यह केवल सुरक्षा बलों के डंडे खाने के लिए आपको चुनते हैं या इनका भी सुरक्षित और सुगम यात्रा का कोई अधिकार है? फिर उनके हिस्से इतनी बेरुखी क्यों? नारकीय यात्रा का पर्याय ही क्यों?
अब केवल समर और हॉलीडे स्पेशल ट्रेनें चलाकर काम नहीं बनेगा। रेलवे को चाहिए कि अब वह एक ऐसी व्यवस्था बनाए, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर ज्यादा से ज्यादा अनारक्षित लंबी दूरी की ट्रेनें चलाई जा सकें। स्लीपर क्लास सेमी हाई स्पीड ट्रेनें चलाई जा सकें। बीच के स्टेशनों से कम दूरी की पॉइंट टू पॉइंट ट्रेनें चलाई जा सके। सामान्य क्लास की क्षमता व फ्रीक्वेंसी बढ़ाई जा सके। जिन सेक्शंस में फ्रेट कॉरिडोर्स तैयार हैं, वहां सभी मालगाड़ियों को स्थानांतरित किया जा सके। नए  फ्रेट कॉरिडोर्स पर काम शुरू किया जा सके। किफायती किराए पर अमृत भारत जैसी ट्रेनें चलाई जा सकें। आज इंडिया क्लास की ट्रेनों की जरूरत है। गरीब रथ की तर्ज पर नॉन एसी स्लीपर क्लास की जरूरत है। कुछ ट्रेनों को आज भी केवल प्रतिष्ठा के लिए ढोया जा रहा है, उन्हें बंद करके जन सामान्य ट्रेन चलाने की जरूरत है। संसाधनों के संपूर्ण सदुपयोग की जरूरत है। अब नाम की नहीं, काम की ट्रेनें चलाने की जरूरत है।
रेलवे पर अपनी छाप छोड़ने का जुनून जब तक प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहेगा, पब्लिक की पीड़ा कम नहीं होगी। माधवराव सिंधिया के जमाने में शताब्दी की छाप, ममता दीदी के समय दुरंतो की छाप, लालू यादव के कार्यकाल में गरीब रथ की छाप, बाद के समय में तेजस, गतिमान और हमसफर की छाप और फिर आज के दौर में वंदे भारत इत्यादि की छाप से मकसद हल नहीं होगा। बेशक रेल यात्रा में गति और लग्जरी दोनों समय की मांग है, पर इसके अलावा देश की प्राथमिकता में गरीबों की यात्रा का हक भी है। बुलेट से पहले जन सामान्य का हक है। रेलवे बजट की प्रतिबद्धता का हक है। आम गरीब मध्यमवर्गीय को यात्रा की गारंटी का हक है।
त्योहारी सीजन पर समस्या का समाधान सुरक्षा गार्ड बढ़ाकर नहीं निकाला जा सकता, बल्कि सामान्य जनता को सुरक्षित यात्रा का पर्याय देकर किया जा सकता है। जन सामान्य ट्रेनों की गति बढ़ाकर, गंतव्य बदलकर, इंटरमीडिएट स्टॉप लेकर, इंडिया स्पेशल ट्रेनें चलाकर और सेमी हाई स्पीड स्लीपर ट्रेनें दौड़ाकर भीड़ का घनत्व कम किया जा सकता है। यदि अब भी सरकार ने ऐसे कदम नहीं उठाए तो नतीजे और भी घातक होंगे। परिणाम निश्चित तौर पर विध्वंसक होंगे। लंबी दूरी के समग्र यात्री भी मुंबई उपनगरीय यात्रियों की तरह खड़े होकर यात्रा करने को मजबूर होंगे। कुर्बानी के लिए लाई जाने वाली भेड़-बकरियों से भी बुरी गत होगी। एक वर्गमीटर में ९ से १० यात्री चिपक-चिपककर यात्रा करने को मजबूर होंगे। इस तस्वीर को बदलना होगा। अब तक यह नहीं बदला है। अब तक बदला है तो केवल निजाम। अब अंजाम बदलने की बारी है।

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