युद्ध

शहर का वह पॉश इलाका था
खूसूरत पार्क, रेस्टोरेंट और मॉल
मुफ्त इलाज का वह अस्पताल
बच्चों का स्कूल और गार्डेन
लोग इसी पार्क में मॉर्निंग वॉक करते थे
बुजुर्ग घंटों एक-दूसरे से अपना सुख-दुःख बांटते
धार्मिक आयोजन और प्रार्थनाएं भी होतीं
प्रेम कभी इन हरी घासों पर उगता
जिंदगी के हंसी सपने भी यहीं खिलते
कितना खूबसूरत और गुलजार था
कभी पार्क में बच्चों की हंसी खिलतीं थीं
पतंग यहीं उड़ती थीं
क्रिकेट और हैंडबाल का शोर यहीं गूंजता था
दादा की अंगुली पकड़ बच्चे यहीं घूमने आते
पार्क के ऊपर से ही गुजरती थीं हवाई जहाज
त्योहार और उत्सव की रौनक पूछिए मत
लेकिन अब सब कुछ खत्म हो गया है
गगनचुम्बी इमारतें खंडर बन गई हैं
पार्क में मातम और सन्नाटा है
चहुंओर बारूदों की गंध बिखरी है
पार्क और इमारतें मलबा बन गईं हैं
अब अस्पताल, मॉल और रेस्टोरेंट
सब खंडर हो चुके हैं
मिट चुके हैं सभ्यताओं के निशान, बुत और म्यूजियम
लड़ाकू विमानों ने उस शहर पर बम बरसाया है
शायद! जंग का एलान हो गया है
मानवता और बुद्ध हार गए
युद्ध जीत गया है।
-प्रभुनाथ शुक्ल

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