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वीकेंड वार्ता : जुमलेबाजी और हिंदुस्थान की कुपोषित आबादी!

राज ईश्वरी

२०२४ ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) की रिपोर्ट के बाद अब हिंदुस्थान की सरकार इसे झूठा साबित करने की पुरजोर कोशिश करती रहेगी। हर बार की तरह यह कहा जाएगा कि यह हिंदुस्थान को बदनाम करने की आदतन साजिश है।
जीएचआई की रिपोर्ट बताती है कि इस साल हिंदुस्थान की कुपोषित आबादी रैंकिंग में दुनिया की सातवें सबसे अधिक आबादी वाले देश के तौर पर होगी। यह देश की मौजूदा आबादी का लगभग १४ फीसदी है। जीएचआई अपने निष्कर्षों में व्यापक डेटा पर विचार करता है।
हिंदुस्थान के मामले में यह सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टैटिस्टिकल रिपोर्ट यानी नमूना पंजीकरण प्रणाली सांख्यिकीय रिपोर्टों पर विचार करता है, जिसे स्टैस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लिमेंटेशन मंत्रालय सालाना प्रकाशित करता है। यह महिला और बाल विकास मंत्रालय और नीति आयोग की रिपोर्टों के आधार पर जन्म, मृत्यु, शिशु और मातृ मृत्यु दर जैसे डेटा मुहैया करता है। वैसे देखा जाए तो यह आंकड़े सरकारी हैं।
२०२४ के रिपोर्ट कार्ड में १२७ देशों को उन देश के हालात के चलते स्कोरकार्ड दिए गए हैं। इसमें हिंदुस्थान की रैंकिंग १०५ पर है और स्कोर है २७.३। दरअसल, ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने १२७ देश का विश्लेषण किया है और उन्हें स्कोरकार्ड के मुताबिक लो (कम) से लेकर एक्सट्रीमली अलार्मिंग (बेहद खतरनाक) जैसी श्रेणियों में रखा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो हिंदुस्थान को सीरियस (गंभीर) श्रेणी, अगर कोई अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करता है तो इसे ‘बेहद खतरनाक’ भी माना जा सकता है। यदि इसे ऐसा कहा जाए कि पर्याप्त भोजन और पोषण जैसी सबसे बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने में देश की सरकार की घोर और प्रणालीगत विफलता को भी स्थापित करता है तो यह अतिशयोक्ति नहीं है।
चौंकानेवाली बात यह है कि फाइनेंशियल ईयर २४ में ६.८ प्रतिशत की दर से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़नेवाली इकोनॉमी हिंदुस्थान की थी, जिसका अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी लगभग ४ ट्रिलियन डॉलर था, जो वैश्विक स्तर पर पांचवें स्थान पर था। फाइनेंशियल ईयर २०१४ में प्रति व्यक्ति आय २,४८५ डॉलर थी, जो वैश्विक औसत का ४वां हिस्सा था, फाइनेंशियल ईयर २०१४ में यह १३,९२० डॉलर से भी कम था, जो व्यापक आय असमानता को दर्शाता है, जिसके परिणामस्वरूप फाइनेंशियल ईयर २०१४ और फाइनेंशियल ईयर २०१५ की आय के बीच खाद्य मुद्रास्फीति के रूप में व्यापक रूप से भिन्न अंतर होंगे। यह ३.८ प्रतिशत से ७.५ प्रतिशत तक दोगुना से भी अधिक है, जो गरीबों को प्रभावित कर रहा है।
भले ही २०२३-२४ के आर्थिक सर्वेक्षण में इसके लिए ‘चरम मौसमी घटनाओं, जलाशयों के निम्न स्तर और क्षतिग्रस्त फसलों को जिम्मेदार ठहराया गया है, जिससे खेती प्रभावित होती है’। बावजूद, हिंदुस्थान ने अपने २०२३-२४ में ३३२ मिलियन टन अन्न उत्पादन किया, जो उच्चतम स्तर पर रहा। यह मुख्य रूप से चावल और गेहूं की फसल की बंपर पैदाइश की वजह से थी। हालांकि, दालें और सब्जियां मौसम की मार से प्रभावित रहीं, लेकिन जब इन आंकड़ों को हिंदुस्थान की शिशु मृत्यु दर – २०२२ में प्रति १,००० जीवित जन्मों पर २६, (जो वैश्विक औसत २८ था) और बच्चों के बौनापन और कमजोरी दर, क्रमश: ३५.५ फीसदी और १८.७ फीसदी के साथ पढ़ा जाता है, तो यह धक्कादायक बात है।
यह हिंदुस्थान की हेल्थ केयर और सुरक्षा तंत्र की विफलता को दर्शाती है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जलवायु परिवर्तन का असर हिंदुस्थान की खाद्य सुरक्षा पर बेशक है, लेकिन इससे निपटना भी सरकार की जिम्मेदारी है। जलवायु परिवर्तन पर ही सारा दोष मढ़ देना और वैश्विक एजेंसी पर साजिश का आरोप लगा देना यह सच्चाई से मुंह मोड़ लेने जैसा है। दरअसल, होना यह चाहिए कि सरकार को खुले मन से स्वीकार कर ऐसी योजनाओं पर काम शुरू कर देना चाहिए, ताकि ग्लोबल हंगर इंडेक्स जैसी संस्थाएं चाह कर भी (जैसा कि उन पर आरोप लगाया जाता है) देश को खराब रैंकिंग में धकेलने में असक्षम हो जाएं।

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