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वीकेंड वार्ता : ग्रामीणों के लिए जीवन रेखा खतरे में! …यूपीए -२ के कार्यकाल में शुरू की गयी

एम.एम.सिंह

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को लागू हुए करीब १८ वर्ष हो चुके हैं। विभिन्न स्टडीज से पता चलता है कि ग्रामीण आजीविका पर इसका प्रभाव कितना सकारात्मक रहा है। यह योजना महामारी के दौरान समाज के सर्वाधिक संवेदनशील वर्गों को जरूरी सहायता प्रदान करने में विशेष तौर पर उपयोगी साबित हुई। लेकिन पुरानी सरकार की अन्य योजनाओं की तरह इसकी उपयोगिता पर सवालिया निशान गाहे बगाहे लगाने की आदत ने और इसे सबोटाज करने की कोशिश! ने एक बार फिर से इसे चर्चा में ला दिया है।
यह रिपोर्ट संगठन के एकेडेमिक एंड एक्टिविस्ट लिब टेक के हालिया विश्लेषण के बाद आरंभ हुई है, जिसमें दिखाया गया है कि योजना के तहत रोजगार में २०२३-२४ की पहली छमाही से २०२४-२५ की पहली छमाही के बीच १६ प्रतिशत से भी अधिक कमी आई। रिपोर्ट बताती है कि इस योजना में भागीदारी करने वाले कामगारों की संख्या भी पिछले वर्ष के मुकाबले ८ प्रतिशत कम हो गई और इस दरम्यान पंजीकृत कामगारों की सूची में ३९ लाख नामों की शुद्ध कमी आई।
रिपोर्ट में आधार पर आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के क्रियान्वयन में आ रही समस्याओं का भी जिक्र किया गया और बताया गया कि २४.७ फीसदी कामगारों को एबीपीएस के जरिए मजदूरी नहीं मिल पा रही है। वजह है २४.७ प्रतिशत से अधिक पंजीकृत मजदूर एबीपीएस के लिए अपात्र बताए गए ह रिपोर्ट बताती है कि किस प्रकार सरकारी नियम मनरेगा को प्रभावित कर रहे हैं। यह इस साल जनवरी से एबीपीएस अनिवार्य करने का असर है।एबीपीएस के लिए मजदूरों को कई शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं इसमें उनका आधार जॉब कार्ड से जुड़ा होना चाहिए और बैंक खाता भी आधार से लिंक होना चाहिए यह सच है कि इसे इंप्लीमेंट करने में काफी दिक्कतें सामने आती हैं। लेकिन इन्हें सुलझाने का काम संबंधित सरकार की जिम्मेदारी है।
रिपोर्ट का कहना है कि अक्टूबर २०२३ में इस योजना के तहत १४.३ करोड़ सक्रिय मजदूर जुड़े थे लेकिन १ साल यानी अक्टूबर २०२४ में यह संख्या घटकर १३.२ करोड़ रह गई है १ साल के अंतराल में सक्रिय मजदूरों की संख्या में ८ फीसदी की गिरावट क्या सरकार को चिंताजनक नहीं लगती? लेकिन सरकार के पास इसका जवाब तैयार है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि योजना के अंतर्गत कामगारों के काम के कुल दिनों का सटीक लक्ष्य तय नहीं किया जा सकता क्योंकि यह योजना मांग पर चलती है और चालू वित्त वर्ष अब भी चल रहा है। उसने यह भी कहा है कि २००६-०७ से २०१३-१४ तक केवल १,६६० करोड़ कामगार दिवस सृजित हो सके, जबकि २०१४-१५ से २०२४-२५ तक २,९२३ कामगार दिवस सृजित होने हैं।सरकार अपनी असफलता को छुपाने के लिए इस तरह से बयान जारी करते रहेगी।
रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल सितंबर २०२४ के दौरान मनरेगा में पंजीकृत ८४.८ लाख मजदूरों के नाम हटा दिए गए लेकिन इसी दौरान विभिन्न राज्यों में ४५.४ लाख नए नाम जोड़े गए लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि नए नाम जुड़ने के बावजूद इस प्रक्रिया में ३९.३ लाख नाम छूट गए रिपोर्ट बताती है कि लगातार नाम हटने से कामगारों का भरोसा इस कार्यक्रम पर घटा है और गांव से पलायन बढ़ा है। गौरतलब है कि २००५ में पारित मनरेगा की एक मांग आधारित योजना है जो प्रत्येक इच्छुक ग्रामीण परिवार के लिए हर वर्ष १०० दिनों के अकुशल कार्य की गारंटी देता है। इसके तहत मिलने वाली मजदूरी विभिन्न राज्य में अलग-अलग है। उस वक्त की यूपीए -२ सरकार ने इसे ग्रामीणों के लिए जीवन रेखा बताया था लेकिन, मौजूदा मोदी सरकार ने इस जीवन रेखा को छोटी कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं है। आवंटन में लगातार इजाफे और अधिक भागीदारी से यही लगता है कि अर्थव्यवस्था पर्याप्त संख्या में लाभकारी रोजगार उत्पन्न नहीं कर रही है, जो नीति निर्माताओं के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।
चलते-चलते सोशल मीडिया पर ट्रेंड हो रहे एक चुटकुले पर नजर
आज मछली खाने का दिल हुआ, झोला उठाकर तालाब के किनारे पहुंच कर, जोर-जोर से चिल्लाने लगा, `बंटोगे तो कटोगे’।
फिर क्या था, सारी मछलियां मेरे झोले के अंदर आ गर्इं। अब मछलियां पूरी सेफ हैं, हमारे पेट में!

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