चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का शनिवार को जल्दबाजी में दिया गया इस्तीफा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने स्वीकार कर लिया है। ऐसे वक्त में जब लोकसभा चुनाव की तारीखों का एलान किसी भी वक्त होने की संभावना है, केंद्रीय चुनाव आयोग में ही इस्तीफे का नाटक हुआ है। अरुण गोयल का कार्यकाल २०२७ तक था। उनकी नियुक्ति मोदी सरकार ने ही की थी। तो अचानक ऐसा क्या हुआ कि गोयल ने जल्दबाजी में इस्तीफा दे दिया और उतनी ही जल्दी उसे स्वीकार भी कर लिया गया? ये सवाल संपूर्ण देश के मन में है। मूलत: मोदी सरकार द्वारा चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण गोयल की जल्दबाजी में की गई नियुक्ति विवादास्पद और यहां तक कि अनैतिक भी मानी गई थी। एक आईएएस अधिकारी अचानक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लेता है और अगले ही दिन चुनाव आयुक्त नियुक्त हो जाता है? पूरा मामला ही चौंकाने वाला था। इसलिए अरुण गोयल की नियुक्ति का विवाद सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। कोर्ट ने गोयल की नियुक्ति तो रद्द नहीं की, लेकिन इस नियुक्ति की ‘गति’ पर उंगली रख ही दी थी। इतनी तेजी से गोयल को नियुक्त करने की क्या आवश्यकता थी? सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल केंद्र में बैठे सत्ताधारियों से पूछा था। इसका जवाब आज तक न तो कोर्ट को मिला है और न ही जनता को। इतना ही नहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ अन्य दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जिस तीन सदस्य समिति का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था, उसे भी मोदी सरकार ने नया कानून बनाते वक्त धता बता दिया। इस समिति में मुख्य न्यायाधीश के समावेश पर ही सीधे अड़ंगा लगा दिया और प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत मंत्री इस तरह का बदलाव किया गया। यह अड़ंगा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की पारदर्शी प्रक्रिया पर था। अब अरुण गोयल के जल्दबाजी में दिए गए इस्तीफे को लेकर विरोधियों से लेकर आलोचक तक केंद्र से सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन मोदी-शाह के पास इसका जवाब देने का शिष्टाचार और नैतिकता है कहां? हालांकि, गोयल ने कहा है कि उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से इस्तीफा दिया है, लेकिन इस खुलासे ने पैâसले के ‘संदेह’ को कम किए बिना सवालों की झड़ी लगा दी है। क्या गोयल भी भाजपा के चुनाव आयोग के न्या. गंगोपाध्याय होंगे? जिन्होंने उन्हें ‘अनैतिक’ तरीके से उस पद पर बिठाया, क्या उन्हीं से उनका कोई ‘नैतिक’ मतभेद आदि हुआ है? क्या अकेले मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के जरिए ही आगामी लोकसभा चुनाव कराने की मोदी सरकार की चाल है? क्या भाजपा के ‘चार सौ पार’ के घोड़े जिस ‘ईवीएम’ की हवा पर सवार होने वाले हैं, उस घोड़े पर अरुण गोयल द्वारा लगाम लगाए जाने का डर सत्ताधारियों को सता रहा था? इसीलिए चुनाव आयोग को अधिक ‘भरोसेमंद’ नियुक्ति का ‘चूना’ लगाने की कोशिश सरकार कर रही है? चुनाव आयुक्त गोयल के जल्दबाजी में दिए गए इस्तीफे से मोदी सरकार की कार्यप्रणाली पर पुराने सवाल फिर से खड़े हो गए हैं। नोटबंदी, जीएसटी, रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. उर्जित पटेल का जल्दबाजी में इस्तीफा, पूर्व केंद्रीय वित्त सचिव सुभाष गर्ग का मोदी सरकार द्वारा रिजर्व बैंक में मौजूद लाखों करोड़ के रिजर्व के इस्तेमाल पर सवालिया निशान, कोरोना काल में बनाए गए ‘पीएम केयर’ फंड का हिसाब-किताब, ‘सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित किए गए ‘इलेक्टोरल बॉन्ड्स’ की जांच… मोदी शासन में उत्तर अनुत्तरित प्रश्नों की सूची अंतहीन है। इसमें अब चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का जल्दबाजी में दिया गया इस्तीफा भी जुड़ गया है। इसके पीछे का सही कारण जानना विपक्ष समेत जनता का अधिकार है। बहरहाल, गोयल के इस्तीफे के पीछे का राज क्या है? यह सवाल भी मोदी शासन के कई अन्य संदिग्ध रहस्यों का हिस्सा बनेगा, इसकी संभावना ज्यादा है। अब इन सभी रहस्यों को उजागर करने का बीड़ा जनता को ही उठाना पड़ेगा।