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जब बौद्ध भिक्षु बने लड़ाके! … जापानी समुद्री डाकुओं से परेशान चीनी सम्राट ने मांगी थी मदद

मनमोहन सिंह

१५५०,चीनी राजवंश मिंग चीन का विशाल राजभवन। खुले प्रांगण में एक बड़ा-सा रिंग के आकार का मैदान था, जिसके चारों तरफ विशाल लोहे की पट्टियां लगी हुई थीं। रिंग के भीतर जाने के लिए एक दरवाजा लगा हुआ था। रिंग के अंदर एक बौद्ध भिक्षु खड़ा था। उसके सामने ८ बौद्ध भिक्षु थे, जिनके हाथों में नंगी तलवारें थीं। जैसे ही जोर से घंटा बजा, वे आठ भिक्षु उस अकेले निहत्थे भिक्षु पर टूट पड़े। पर क्या! देखते ही देखते वह चारों खाने चित्त पड़ गए। यह उनके बीच हो रहे युद्ध का अंतिम दौर था। इसके पहले वह ८ भिक्षुओं को अकेला ही हरा चुका था। सम्राट के सेनापति ने पैâसला सुनाया। जीत अकेले लड़ रहे निहत्थे भिक्षु की हुई थी। वह रिंग से बाहर आया। सम्राट ने उठकर उसका स्वागत किया और मंत्री ने उन्हें एक सोने की तलवार सौंपी और घोषणा की कि भिक्षुओं के लड़ाके सेना का नेतृत्व वही भिक्षु करेगा। उस भिक्षु का नाम था तियानयुआन, जो शाओलिन मठ का था।
१५५० तक, शाओलिन मठ लगभग १,००० वर्षों तक अस्तित्व में था। निवासी भिक्षु कुंग फू (गोंग फू) के अपने विशिष्ट और अत्यधिक प्रभावी रूप के लिए पूरे मिंग चीन में प्रसिद्ध थे। आमतौर पर एक बौद्ध भिक्षु के जीवन में ध्यान, चिंतन और सादगी शामिल होती है। लेकिन सम्राट को भिक्षु के शरण में आना पड़ा, क्योंकि उस दौरान राजवंश जापानी समुद्री डाकुओं से बुरी तरह परेशान था, जो दशकों से चीनी समुद्र तट पर अपना आतंक पैâला रहे थे।
हुआ यह कि जब सामान्य चीनी शाही सेना और नौसेना सैनिक समुद्री डाकू के आंतक को खत्म करने में असमर्थ साबित हुए, तो चीनी शहर नानजिंग के उप-आयुक्त-प्रमुख वान बियाओ ने सम्राट से मंत्रणाकर मठवासी भिक्षु लड़ाकों को तैनात करने का पैâसला किया। उन्होंने तीन मंदिरों के योद्धा-भिक्षुओं को बुलाया, शांक्सी प्रांत में वुताईशान, हेनान प्रांत में फुनिउ और शाओलिन। लेकिन कुछ अन्य भिक्षुओं ने शाओलिन दल के नेता तियानयुआन को चुनौती दी। दरअसल तियानयुआन संपूर्ण मठ सेना का नेतृत्व चाह रहे थे। तियानयुआन ने उनकी चुनौती स्वीकार की और उन्हें मठसेना का मुखिया बनाया गया।
जापानी समुद्री डाकू
जापान में १५वीं और १६वीं शताब्दी का समय उथल-पुथल भरा था। यह सेनगोकू काल था, प्रतिस्पर्धी डेम्यो के बीच युद्ध की डेढ़ शताब्दी देश बिना किसी केंद्रीय शासक के चल रहा था। ऐसे अराजक हालात के चलते आम लोगों के लिए ईमानदारी से जीवन यापन करना कठिन हो गया था। उनके लिए चोरी-चकारी सबसे आसान तरीका बन गया था। समुद्री डाकुओं के गिरोह इसी तरह अस्तित्व में आते चले गए। वहीं मिंग चीन की अपनी समस्याएं थीं। हालांकि, यह राजवंश १६४४ तक सत्ता में बना रहा, लेकिन १५०० के दशक के मध्य तक यह उत्तर और पश्चिम के खानाबदोश हमलावरों के साथ-साथ तट पर बड़े पैमाने पर लूटपाट से घिरा हुआ था। यहां भी समुद्री डवैâती जीविकोपार्जन का एक आसान और अपेक्षाकृत सुरक्षित तरीका था।
भले ही समुद्री डवैâती `जापानी समुद्री डाकू’
`वाको या वोकू’ के नाम से कुख्यात थे लेकिन उनमें जापानी के अलावा चीनी और पुर्तगाल भी जुड़े हुए थे। अपमानजनक शब्द वाको का शाब्दिक अर्थ था `बौने समुद्री डाकू।’ यह समुद्री डाकू एक बड़ी समुद्री इलाके से गुजरने वाले पानी के जहाजों पर हमला करते और बेशकीमती रेशम व मूल्यवान धातु से बने सामानों को जापान-चीन के बाजार में उन्हें १० गुना अधिक कीमत में बेच देते।
समुद्री डाकुओं के साथ पहला युद्ध तियानयुआन के नेतृत्व में १५५३ के वसंत में माउंट झे पर हुआ था। दूसरी लड़ाई जुलाई १५५३ में हुआंगपु नदी डेल्टा में लड़ी गई थी, जो वेंगजीगांग के नाम से प्रसिद्ध है। उसी वर्ष हुआंगपु डेल्टा में दो और लड़ाइयों में मठसेना जीती। लेकिन चौथी लड़ाई में राजा के सेनापति की रणनीति सफल रही जिसकी वजह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा और उसके बाद शाओलिन मठ और अन्य मठों के भिक्षुओं ने सम्राट के लिए अर्धसैनिक बलों के रूप में सेवा करने में रुचि खो दी।
हालांकि, यह काफी अजीब लगता है कि शाओलिन और अन्य मठों के बौद्ध भिक्षुओं ने न केवल मार्शल आर्ट का अभ्यास किया, बल्कि अध्यात्म के इतर, वास्तव में युद्ध में उतरकर सम्राट की मदद की। शायद उन्हें अपनी उग्र प्रतिष्ठा बनाए रखने की आवश्यकता महसूस हुई हो। आखिरकार, शाओलिन एक बहुत समृद्ध जगह थी। दिवंगत मिंग चीन के अराजक माहौल में भिक्षुओं के लिए एक घातक लड़ाकू बल के रूप में प्रसिद्ध होना बहुत उपयोगी रहा होगा। शाओलिन आज भी बहुत प्रसिद्ध है।

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