कहां गुम हो तुम

कहां गुम हो तुम
सूना है आंगन
रोती है आंखें चुपचाप,
अब नहीं गूंजती
गौरेया की चहचहाहट
जो हर सुबह
देती थी जीवन संदेश
जगा देती थी नींद से
लाती थी भोर का संदेश
लेकिन अब सन्नाटे की चादर
ओढ़े चुपचाप पड़े है सब।
छोटे पंखों की वो उमंग,
नन्हे स्वर में छुपी कोई तरंग।
अब वो आवाज नहीं पड़ती कानों में
मानों दिल की धड़कन कहीं थम गई हो।
मुंडेर की ईंटें और कोना कोना तकती हैं राहें
पूछते है सब आखिर कहां गई वो?
लेकर हाथों में दाना-पानी
इंतज़ार करते थक गए,
पर वो प्यासा परिंदा लौटे तो कैसे?
पेड़ों की शाखों को भी है इंतजार
वे झुकी हैं उदास,
जहां बैठती थी वो
अब खाली हैं वहां सांस।
पत्तें भी गुमसुम है
सरसराना भी चुप
अजीब सी खामोशी और उदासी
बिखर गई बच्चों की हंसी
गौरेया के संग बचपन भी उड़ गया
खिलौनों मे लगता नहीं मन
मां की आंखें अब दरवाज़े पर नहीं टिकतीं,
लौटना लगता नहीं अब उसका मुमकिन
एक नन्ही जान के संग
हमारी मासूमियत
हमारी हरियाली भी चली गई।
अब घर बस घर नहीं रहा,
बेबस सा एक खालीपन
जो सांसों में पल रहा।
गौरेया के बिना ये जीवन
लगता बड़ा अधूरा
जैसे आत्मा से कोई रिश्ता छूट गया हो
जन, मन, जंगल सब पुकारते
लौट आओ गौरेया
तुम बिन सब सूने पड़े हैं
घर आंगन और मुंडेर।
-अमृतलाल मारू ‘रवि’
इंदौर, म.प्र.

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