बरबस मन डूब जाता है
बीते दिन और रातों में,
कुछ पुरानी यादों में।
यह यादें आह्लादित करती हें या कचोटती हैं,
कह नहीं सकती क्यों?, शायद
मन पर अंकुश नहीं है ।
मन को उजली रातें डराती हैं या,
अंधेरी रातें सहलाती हें,
क्यों?, मैं जानती ही नहीं।
कभी सूखा मौसम आंखों
से जल बरसाता है,
कभी गीला मौसम सूखा ही
बीत जाता है, क्यों?
कह नहीं सकती।
कभी किसी ख्याल में मन भटका लेती हूं,
और कभी भटकते ख्यालों को सुलझाती नहीं, क्यों?,
यादों से पीछा छुड़ाना चाहती ही नहीं।
अपने बुलंद हौसलों से डर जाती हूं,
कभी डर को बुलंदी से भगाती हूं, क्यों?,
स्वयं से सशंकित हूं।
भीड़ में अकेली हो जाती हूं,
अकेले में यादों की भीड़ एकत्र कर लेती हूं, क्यों?,
अब तक मृग मरीचिका में हूं शायद।
धड़कता दिल पाहन सा कठोर हो जाता है,
कभी प्रस्तर मूर्त के नयनों से बहती अश्रुधारा देखती हूं, क्यों?,
शायद जीवन से बहुत आशंकित हूं।
-बेला विरदी