पंकज तिवारी
केले का हरा-हरा पत्ता पूजा स्थल के चारों ओर लगा दिया गया था, एक पत्ता बीच में भी विराजमान था। मंगरा काकी पिसान से चौक पुरना भी बना चुकी थीं। जिसकी हर रेखा का कोई न कोई मतलब था, लंबी-लंबी कहानियां थीं। पवित्र आसन भी सजकर तैयार हो चुका था। ओसार और दुआर पर गजब की सफाई चमक रही थी। कोई खरौंचा से दुआर बहोर दिया था तो कोई बाल्टी भरकर कई-कई बाल्टी पानी दंवार दिया था। मिट्टी की मह-मह महक से पूरा माहौल महक उठा था। ओसारे के एकदम सामने र्इंटों से बनी क्यारी में दिन दुपहरिया सहित तमाम तरह के फूल खिलखिला रहे थे और उनकी महक भी माहौल में घुल सी गई थी। बाहर दीवार से सटाकर रखे गए हल को भी धो-पोंछकर साफ कर दिया जाता था। घर के जरूरी सामानों में आता था हल। गाय-भैंसें एक दिन पहले ही चमक जाती थीं। टार्च की बैटरी फोड़कर उसकी कालिख से उनकी सींगों को चमकाया जाता था। कोयेर मशीन को कपड़े से ढंककर बांध दिया गया था, ताकि कोई बच्चा उससे ना उलझ सके। ये सभी चीजें गांव में शान हुआ करती थीं। बर्धा, बगैचा, खेत-खलिहान देखकर ही इंसान की पहचान हुआ करती थी।
दो-चार खटिया अगल-बगल से भी मांग कर आ गई थी। दरी या चादर भी बिछा दिया गया था। कुछ लोग बीड़ा पर भी बैठ गए थे और पूजा शुरू होने के इंतजार में थे। बहोरी बबा पंडितजी को आवाज देकर ओसारे में बुला लिए और पूजा शुरू करवाने की गुहार लगाने लगे थे। पंडित जी तो तैयार बैठे थे मुस्कान बिखेरते हुए धीरे से आसन तक पहुंच गए और आसन को प्रणाम करते हुए बैठ गए। बबा और अइया को भी बैठ जाने हेतु बोलकर अपनी तैयारी में लग गए। बबा अइया भी बैठ गए। मंगरा काकी जैसे तैयार खड़ी थीं झट से अइया के साड़ी तथा बबा के गमछा को पकड़ कर गांठ बांध दी। अइया धीरे से मुस्कुरा उठी। बबा से नेहछू मांगने लगी काकी, बबा धीरे से निकालकर एक नया-नया नोट पकड़ा दिए।
सामान की थाली में से सारा सामान मिला लेने के बाद ही पूजा कार्य हेतु लगे पंडितजी। सामान पूरा था कारण बबा हमेशा ही पूजा करवाते रहे थे, उन्हें सब चीजें पहले से ही पता होती थीं। पूजा सुनने वाले भी लगभग-लगभग आ ही चुके थे और ओसारे के साथ ही भीड़ बाहर तक पहुंच गई थी। फुलौरा चाची के साथ उनकी नतिनी भी आई हुई थी। प्रसाद में रखी पंजीरी को देखकर बार-बार लेने की जिद करने लगी, पर हर बार ‘धत्त् बहिनी रहि जातू पहिले पुजवा तऽ होइ जाइ दऽ कि पहिले परसदवइ चाहे, जियरा डाहि डालथऊ बहिनी…’ डांटि देंइ चाची, लेकिन गदेला गदेला होते हैं एक बार में मान जाएं तो फिर बचपना वैâसा? वो रटती ही रही, पर उसकी एक न चली। कुछ लोग मन ही मन मुस्कुरा रहे थे तो कुछ मन में ही गुस्सा के फूट भी गए थे, पर धरातल पर सभी शांत ही रहे, कोई बखेड़ा नहीं खड़ा हो पाया तब तक तो कुछ ही देर में पूजा शुरू ही हो गई। पंडित जी विनियोग एवं मंत्रोच्चार के साथ ही प्रभु को याद करते हुए, अक्षत पुष्प चढ़वाते हुए, जल छिड़कते हुए लगातार आगे बढ़े जा रहे थे। शंख की गूंज पूरे गांव तक पैâल रही थी। छूटे-बटुरे लोग भी भागे चले आ रहे थे। रमई बहु कागज और गिलास लिए सबसे आगे ही बैठ गई थी। गिलास और कागज तो लगभग सभी के हाथ में ही होता था। लोग हाथ जोड़े लगातार तल्लीनता के साथ कथा सुनते रहे। पंडितजी के मुख पर का तेज देखते ही बनता था। जल्दी ही पूजा संपन्न हो गई। हवन-अगियार के बाद आरती भी हो गई थी। प्रसाद और चरणामृत बांटने के लिए मोहन तथा भोदू खड़े हो गए और सभी को प्रसाद देने लगे। लोग प्रसाद प्राप्त कर खुश हो अपने-अपने घर जाने लगे थे। सभी के चेहरे पर एक अलग तरह की शांति थी। खुशियां हवा में तैरने लगी थीं। पूजा से पूरा गांव भक्तिमय हो उठा था।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)