काहें बिसरा गांव
पंकज तिवारी
बहोरी दुलहा के परिधान में खूब खिल रहा था। बरात सुबह से ही चल पड़ी थी। लोग अपने-अपने सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय पर ही सही पर पहुंच चुके थे। कुछ लोग गमछा लिए पैदल ही चले आए थे तो कुछ साइकिल से यहां पहुंचे थे। जूता लाठी में बांधे कंधे पर रखे अधिकतर लोग बरात में पहुंचने के बाद अब उसकी सफाई में लग गए थे। अलग-अलग अहरा पर कुछ-कुछ लोगों का भोजन बनने के बाद खाया भी जा चुका था। पेट्रोमेक्स की रोशनी में दुआर नहाया हुआ था और जगमगा रहा था। दुअरा धूमधाम से लगा। आपन खोरिया संभारऽ हो सजीवन राम, आवत बांटेन दुलरू दमाद…। गांव-घर की बहनें, दुलहनें गीत गा-गा कर शादी में चार चांद लगा रही थीं। पूरे प्रक्रम के अनुसार शादी हुई। दुलहा बहोरी शादी के बाद जैसे ही कोहबर में गया, दुलहिन की बुआ द्वारा उनके भगवान की पूजा करने को कहा गया। बेचारा संकोची बहोरी बुआ की बात सिर-माथे लेते हुए तुरंत लपककर कपड़े से ढंके भगवान का पैर छू लिया। दुलहिन जो काफी देर से अपनी हंसी दबाए बैठी थी फुस्स से हंस पड़ी। सभी खिलखिला उठे। बेचारा बहोरी विश्वास के बदले धोखे का शिकार हो गया था। वह कपड़े से ढंके भगवान के स्थान पर लोढ़े का पैर छू लिया था। दूल्हे से मजाक-मजाक में ऐसी तमाम गतिविधियां कराने का रिवाज था तब, अब भी है। खैर, बेचारा बहोरी हंसते हुए अपना मन मसोसकर रह गया था। सुबह अंगना में जाने का बुलावा आ गया था। बहोरी इस बार पहले से ही सचेत था। नमकीन में पतली-पतली हल्दी की गांठ देखकर बेचारा नमकीन ही नहीं खाया। खिलाने का खूब प्रयास किया गया, पर कहते हैं कि दूध का जला मनई छांछ भी फूंककर पीता है। इस बार दुलहा खुद को मजाक बनने से बचा लिया था, पर गारी गीत ‘जउ नऽ होतइ हमरे भंइसी के दहिया, तउ का खात्यऽ तूं दुलहा राम…’ गीत सुनकर बहोरी को जल्दी से दही जुठारना ही पड़ा पर गीत लगातार जारी रहा। दुलहिन को डोली में बिठाया जाने लगा। दुलहिन की आंखों से आंसू झर रहे थे, पर महिलाएं उसे लिए लगातार आगे बढ़ती जा रही थीं। भाई मुंह में पानी भरकर डोली के उस पार मार रहा था। विदाई का दुख परिवार वालों के चेहरे से साफ झलक रहा था। बाबू नीम के पीछे जाकर गमछा से अपने आंसू पोंछ रहे थे। डोली चल पड़ी। दुल्हन को पानी पिलाने के लिए झल्लर डोली के साथ हो लिए। डोली के साथ ददा भी हो लिए थे, टीनो पाल लगी धोती के साथ गमछा बार-बार झटकते और इधर-उधर देखते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। महुअरिया फांदते हुए डोली करीब कोस भर आ गई थी। बीच में घना जंगल, पुरबी बयार, दूर-दूर में बसे गांव के लोग जब डोली देखते तो देर तक देखते ही रहते। बखरियों के बीच में से गुजरती डोली कौतुहल का केंद्र बनी हुई थी। करीब दो घंटे लगातार चलने के बाद बवंडरपुर गांव के सेंवार में पहुंचकर डोली को रोका गया। ददा डोली के मोहार पर खड़े हो गए। झल्लर दुल्हन को पानी देते हुए बोल उठे- ‘बिटिया अउर कुछ चाहे का, रोअऽ जिनि बिटिया, अब शांत होइ जा। घबरा जिनि बबऊ के ददा साथेन बाटेन बिटिया।’ दाना-पानी हो जाने के बाद दुबारा जैसे ही डोली उठाई गई खट्ट से आवाज आई, कुछ तो था जो खटक गया था, पर जल्दी ही सब ठीक हो गया। डोली फिर से चल पड़ी। उधर घर पर भी नई बहुरिया का बेसब्री से इंतजार हो रहा था। घर, आंगन, पेड़, पौधे सब के सब नई बहुरिया के इंतजार में नजरे गड़ाए हुए बैठे थे कि अंधेरा होते तक नई दुल्हन घर आ गई। सास नई बहू की नजर उतारने में लग गई थी। महिलाएं पीछे खड़ी एक नजर देखने को व्याकुल दिखीं।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)