पंकज तिवारी
बुधई बड़े तो हो गए थे पर बचपना अभी नहीं गया था। बुद्धि बच्चों वाली ही थी। ददा बेचारे लगातार खटते रहते थे। कुछ न कुछ हमेशा करते ही रहते थे। गाय-गोरू के सानी-पानी से लेकर दुआरे की साफ-सफाई, खेती-बाड़ी, बर-बाजार यहां तक कि उपरी पाथने का काम भी उनका ही होता था। बाहर मड़ई पर लटके कद्दू, लौकी जैसे और भी सब्जियों को तोड़ने का काम भी उनका ही था, जबकि दादी का तो चलना-फिरना ही भारी था। किसी तरीके से रो-धोकर के आंगन के काम निपटा ले रही थीं यही काफी था। दादी बिना काम घंटों मचिया पर बैठे औरों से गप्प लड़ाना भी नहीं पसंद करती थीं। बेचारी बुधई के क्रियाकलापों से बहुत दु:खी थीं। कभी-कभी अपने भाग्य को लेकर भगवान को भी कोसने बैठ जाती थीं, पर इससे होता क्या था? कुछ नहीं। ददा भी बुधई को बहुत समझाते थे कि बचवा कायदे से पढ़-लिख ले, जिंदगी बहुत भारी होती है, चीजें आसान नहीं होतीं, पर बुधई को ददा की बातें बकवास समझ में आती थीं और दादी को तो कुछ समझता ही नहीं था। ददा के लाख समझाने के बाद भी बुधई ना तो पढ़ता-लिखता था ना ही काम-धाम में आगे था। उम्र में अपने से बहुत छोटे बच्चों के साथ सारा दिन भिड़ा रहता था, खेलता रहता था। कभी गिल्ली-डंडा तो कभी सत्तोड़ तो कभी कनघिट्टिया खेल गोली। सभी बच्चे मिलकर खूब भगाते थे बुधई को, बेचारा दिन-दिन भर भटकता ही रहता था। उसे इन सभी के अलावा अगर कुछ और पसंद था तो फिल्में देखना और अभिनेताओं की नकल करना भी। कभी शहंशाह, कभी बादशाह तो कभी स्वर्ग वाला अभिनेता बने फिरता रहता था। जामुन और नीम के लकड़ियों से बंदूक जैसा बनाकर जेब में ठूंसे इधर से उधर घूमता रहता था, बाकी मुंह से ठांय-ठांय तो निकाल ही लेता था। खुद को पुलिस और बाकी बच्चों को चोर समझते हुए नकल करते रहता था। कभी-कभी पुलिस के वाहन की आवाज भी खुद ही निकालता था। ददा काम-धाम से तो परेशान थे ही, दादी के देख-रेख और दवा से भी परेशान थे और बाकी बचा-खुचा चैन बुधई ने छीन रखा था। बुधई मुंबई जाकर बड़े पर्दे पर आना चाहता था, जिसके लिए ददा से कई दफा बोल भी चुका था, पर ददा इन सभी से बेखबर पसीने से तरबतर अपने कामों में लगे रहते थे।
एक दिन बिल्कुल ही सामान्य सा दिन था। चारों तरफ पक्षियों का शोर था, सुनहरी सुबह बिल्कुल ही सफेद धूप के रूप में बदल गई थी। दादी मचिया पर बैठे-बैठे नीम बीन रही थी। मोहारे पर घर की शान हल रखा हुआ था, बगल में हेंगा भी। ददा पिटना लिए कहीं मिट्टी बराबर कर रहे थे कि बगल के गांव से राकेश आ गया और ददा को नमस्ते किया। नमस्ते सुनते ही ददा मन ही मन कुछ कसमसाए कारण गांव में एक ही शब्द चलता था ‘पालागी’ पर नमस्ते ने ददा को परेशान किया। देखे तो बड़ी-बड़ी जुल्फी, बिल्कुल अलग तरीके से पहनावा ऊपर से बड़ा सा दुपट्टा जैसा कुछ कंधे के दोनों तरफ से लटक रहा था। सच कहूं तो गांव में बिल्कुल अजूबा सा दिख रहा था राकेश। फिलहाल, ददा उसे पहचान गए थे। बैठने को कहकर मीठा-पानी लाने घर में चले गए। उधर से दादी आ गई- ‘अउर भइया कइसे बाट्यऽ? घर-परिवार सब कुशल से?’ एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठी दादी और वहीं बगल में बैठ गई। राकेश भी हां में उत्तर देते हुए हाल-चाल बतियाने लगा। अभी कल ही मुंबई से आए हैं दादी। ‘अच्छा तूं मुंबई रहइ लाग्यऽ भइया, कइसन बा मुंबई लाल। हम सब त इंहीं धाने-पिसाने में सिराइ जात गए का जानी मुंबई के हाल, खैर तू थकि गऽ होबऽ बेटवा रुकऽ पानी लिहे आई पहिले पीऽ ल तब बतियाब भइया।’ दादी उठने को हुई कि राकेश बोल बैठा, दादी आप बैठिए ददा गए हैं पानी लाने। ‘अच्छा, अच्छा ठीक बाऽ भइया। अउर सुनावऽ लाल घरे-परिवार, खेती-किसानी क सब खैरियत?’ दादी मुंबई में मैंने सब कुछ बहुत बढ़िया से जमा लिया है। बड़े-बड़ों से जान-पहचान है। आप सब के आशीर्वाद से घर, गाड़ी सब कुछ हो गया है बस मजे से चल रही है जिंदगी। फिल्म लाइन में घुस गया हूं मैं। अच्छा… दादी की आंखें तो जैसे बड़ी होकर जम सी गर्इं…। दादी को इन शब्दों में अपने बुधई का भविष्य भी नजर आने लगा था…। क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)