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रूस की सेना से क्यों लौट आना चाहते हैं ‘किराए के नेपाली सैनिक’?

मनमोहन सिंह

पिछले वर्ष अक्टूबर को नेपाल के बेरोजगार युवाओं के लिए एक टिक टॉक वीडियो जैसे खुशियों का मैसेज लेकर आया था। यह रूसी सेना में नेपालियों की भर्ती के बारे में था। रूसी सेना में भर्ती के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। कुछ ही मिनटों में, उन्हें संपर्क विवरण के साथ एक एजेंट से सीधा संदेश मिला। एजेंट ने ९,००० डॉलर मांगे और भत्ते और बोनस के साथ लगभग ३,००० डॉलर प्रति माह का वेतन और भावी सैनिक के लिए और बाद में उसके परिवार के लिए रूसी नागरिकता का वादा किया।
उन नौजवानों में एक थे ‘गुरुंग’, जो बेरोजगार थे, बेहतर जीवन के लिए उन्हें यह एक सपने की तरह लग रहा था। गुरुंग ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चार दिन बाद, उनके पास रूसी पर्यटक वीजा और २१ अक्टूबर, २०२३ के लिए दुबई के रास्ते मास्को का टिकट बुक था।
रूस जाने के बाद नेपाल के उस नौजवान रूसी ‘किराए के सैनिक’ ने २५०,००० नेपाली रुपए वापस भेजे, लेकिन वह २६ नवंबर को युद्ध में मारे गए। नेपाल में घर पर, उनकी पत्नी को अब अकेले ही अपने चार साल के बेटे और दो महीने की बेटी की देखभाल करनी होगी, जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा था।
यह नेपाल के एक अकेले रूसी ‘किराए के सैनिक’ की दर्दनाक कहानी नहीं है, बल्कि एक लंबी फेहरिस्त है, ऐसे नेपाली नौजवान सैनिकों की, जिन्होंने अच्छी जिंदगी और बेहतर भविष्य के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी है। रूस पहुंचकर उन्होंने समझा कि उन्हें सब्जबाग दिखाकर मौत के मुंह में ढकेल दिया गया है। दरअसल, रूस में इन किराए के सैनिकों को एक ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। न तो उन्हें अच्छी तरह से ट्रेनिंग दी जाती है और नहीं उनका ख्याल रखा जाता है।
रंगरूटों (नए सैनिक) का कहना है कि लड़ने के लिए भेजे जाने से पहले उन्हें बमुश्किल ही कोई प्रशिक्षण मिला था, जबकि रिक्रूटमेंट एजेंसी के लोगों ने इन नौजवानों को तीन महीने के सेना के पूर्ण प्रशिक्षण का आश्वासन दिया था, लेकिन उन्हें यूक्रेन की सीमा से लगे दक्षिण-पश्चिमी रूस के रोस्तोव क्षेत्र में एक महीने से भी कम समय का युद्ध अभ्यास मिला। एक नेपाली ‘रूसी सैनिक’ ने मीडिया को बताया कि उसने केवल दूर से बंदूक देखी थी, उसे पहले कभी नहीं पकड़ा था, लेकिन उसे और उस जैसे कोई रंगरूटों को सीधे वॉर फील्ड में उतार दिया गया।
एक अन्य सैनिक के मुताबिक, जो युद्ध में घायल हो गया और अस्पताल में है, उनकी यूनिट के अधिकारी ज्यादातर नेपाली, ताजिक और अफगान ‘किराए के सैनिकों’ को प्रâंटलाइन पर भेजते हैं। रूसी सेना ने हमें बस पीछे से आदेश दिया। युद्ध मैदान में हम उनकी ढाल की तरह थे। एक अन्य सैनिक मीडिया से बातचीत में कहता है,
‘रूसी कमांडर हमें दुश्मन के ठिकानों का निरीक्षण करने के लिए भी कहते हैं, जो बहुत डरावना है। रूसी ‘सेना’ में इस तरह के खतरनाक और अमानवीय हालात में रहते हुए मरने से बेहतर कई ‘सैनिकों’ को लगता है कि वे लोग यहां से भाग कर अपने देश नेपाल पहुंच जाएं और इस तरह की कोशिश कई सैनिकों ने की भी, लेकिन ऐसे भाग्यशाली सैनिक जो नेपाल वापस पहुंच गए, उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। भागने की फिराक में सैनिकों की बदकिस्मती होती है, क्योंकि अब उन पर और कड़ी नजर होती है, उनके पासपोर्ट जप्त कर लिए जाते हैं। यहां तक की भागने के दौरान यदि ठंड की वजह से उनकी तबीयत खराब भी हो जाती है तो उन्हें अस्पताल की जगह जेल भेज दिया जाता है, यानी उनके स्वास्थ्य की कोई चिंता नहीं।हालात और भी बदतर तब हो जाते हैं जब उन्हें वक्त पर तनख्वाह नहीं मिलती और उनकी मौत के बाद उनके परिवार वालों को उनके शव नहीं मिलते, मुआवजा तो दूर की बात है। अब नेपाली ‘लड़ाके’ और उनके परिवार अपनी सरकार से हस्तक्षेप करने का आग्रह कर रहे हैं, ताकि भर्ती किए गए सैनिक अपने देश वापस लौट सकें।बकौल विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अमृत बहादुर राय, ‘हम रूसी सरकार के साथ संपर्क में हैं और उनसे नेपाली रंगरूटों के नाम की सूची मांगी है, ताकि उन्हें वापस भेजा जा सके।

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