मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव  : मुंबई बिना परेशान बुधई

काहें बिसरा गांव  : मुंबई बिना परेशान बुधई

पंकज तिवारी

राकेश फिल्म लाइन में है, सुनते ही दादी तो जैसे खुशी से फूल गर्इं पर गनीमत रहीऽ कि बात मन में ही दबी रह गई। ‘अब त खातिरदारी बढ़िया से करइ के पड़े भइया के होऽ’- सोच कर राकेश को वहीं बैठने को बोलकर दादी भी झट से बखरी की तरफ चल पड़ी। उधर से गुड़-पानी लिए ददा दरवाजे से ओसारे में पहुंच गए थे कि बांह पकड़कर दादी ददा को अंदर खींच ले गई, बेचारे ददा अरे.. अरे.. अरे.. कहते हुए उनके पीछे-पीछे चल दिए। आंगन में पहुंचकर, ‘हे बुढ़ऊ सुनबऽ नऽ… इ त मुंबई में रहथ होऽ, फिलिम-सिलिम में काम करथऽ, एकदम आश्चर्यजनक मुद्रा में आंख बड़ी-बड़ी करते हुए दादी ददा से बोल पड़ींऽ- ददा भी ऐसे दिखाए जैसे कुछ जानते ही न हों, जबकि पता तो उनको भी था। ‘अपने बुधइया के बारे में रचिके बतियात नाइ, देखऽ का पता कुछु काम आइ जाइ रकेसवा हो, बुधइयउ क भाग्य खुलि जाइ, अउर सुनऽ ओकाऽ गुड़-चीनी जिनि लेइ जाऽ होऽ… रुकऽ हम देथई, जवन चुरए हई खोवना, आखिर ऊ कहिया काम आए। बढ़िया बरफी बनि गइ होए अब तक तऽ। दादी आज तो एकदम से जैसे तेज-तर्रार हो उठी थीं, दौड़-दौड़ कर चीजें ला रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे बुधई की किस्मत आज खोलवा के ही मानेंगी दादी। बेचारू ददा मुस्कराते हुए बस दादी को निहारे जा रहे थे। झट से दादी अपने कमरे में गर्इं, टोके से चाभी निकाली अउर भंडरिया में रखे खोवा को प्लेट में रखकर बाहर आ गर्इं अब तक ददा राकेश के पास बैठ चुके थे और हाल-चाल लेने लगे थे। राकेश नॉनस्टॉप बस बोले जा रहा था, जबकि ददा ताड़ में थे कि कहां मौका मिले और बुधई की बात उठाई जाए। एक हाथ में खोवा और दूसरे में मचिया लिए अब तक दादी भी आ चुकी थीं, बैठते हुए बोलीं- लेऽ भैया मिठाई खे, देख तोहरे भाग्य में रहा इंहीं से मिलि गवाऽ बाकि ई कुलि गांउ-घरे में कहां नसीब होइ वाला बा, अपने बबा के देखतइ हयऽ कइसउ-कइसउ बुढ़ाई काटि रहा हयेन अउर येहर हमार त जना उठबइ-बइठब भारीऽ होइ गवा बाऽ। एकठे देखथयऽ बुधइया बाऽ, घरे-दुआरे से जना ओका कवनउ मतलबइ नाइ रहि गवाऽ। जब देख दिन-दिन भर बित्ता-बित्ता भरे के लुहेड़न के साथे घूमि रहाऽ बा। भगवान जेका केहू के लड़िका देंइ त तोहरिन की नाइ देंइ, बुधइया त पता नाइ कवने सइती भवा रहा कि बुद्धि जना चरइ चलीऽ गइ बाऽ। ‘चाल एकदम सही चल दिहे बा बुढ़िया’, ददा मन में ही सोचकर मुस्करा उठे थे, जबकि राकेश खोवा खाने में जुट गया था।
‘हां एक चीज हमेशा ध्यान रख्यऽ भइया कि जेतना बनि सकइ दुसरे क मदद किहऽ’- दादी की ये बात सुन राकेश के अंदर सहायता करने का जज्बा जाग उठा। कहां है बुधई? दादी उसे बुलाओ तो सहीऽ मैं देखता हूं न उसके लिए क्या कर सकता हूं। मुंबई में काम की कमी कहां है? वहां तो इंसान की कमी पड़ जाती है दादी। दादी की खुशी फिर से छल्ल से छलक उठीऽ। ददा दौड़ पड़े बुधई को बुलाने। ‘बुधइया हयेऽ रेऽ… हेऽ… बुधइया… हवा में आवाज फेंकते हुए, जोर आजमाइश करते हुए ददा पूरे गांव भर में बुधई को ढूंढने लगे थे, जबकि बुधई का कहीं अता-पता ही नहीं था। बेचारे ददा चिल्लाते हुए गांव के बाहर ताल-तलैया, खेत-खलिहान तक ढूंढ रहे थे पर बुधई का अभी भी कहीं अता-पता नहीं था। धूप खूब तेज लपलपा रही थी। ददा आंख के ऊपर पंजे से छांह किए अब तालाब के एकदम नजदीक चले गए थे जहां बहुत सारे बच्चे नहा रहे थे। बुधई भी था पर बच्चों से बोल रखा था कि कोई बताना नहीं कि मैं यहां हूं। दादा आए पूछा-परखी होने लगी, तालाब में नहाने वाले और खेल खेलने वाले बच्चों में कोई भी बुधई के बारे में नहीं बोला, जबकि बुधई तैरते हुए तालाब के उस पार जहां दो-चार बबूल के पेड़ थे और जिसकी टहनियां तालाब में लटक रही थीं, के आड़ में जा छिपा था। ददा ताड़ गए थे कि कुछ तो गड़बड़ है।
‘ठीक बाऽ हम जाथई, अगर कवनउ से भेंटाइ बुधइया त कहि देत्जाय कि ओका मुंबई लियाइ जाइ बदे आइ हयेन एक जने, जे फिलिम में कामउ देवइहीं।
हाय दइया अब का करी रे…? सिर खुजलाते हुए बुधई सोचने लगा…
क्रमश:
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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