मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : झूलन ददा के गांव में होली

काहें बिसरा गांव : झूलन ददा के गांव में होली

पंकज तिवारी

फगुनी बयार का असर कहें या रंगों के मौसम में भीगने को आतुर मन के चंचल उड़ान का असर, हर तरफ बस भागमभाग ही मची हुई थी। कोई चैता, फगुआ की धुन सीख रहा था तो कोई किसी से होली खेलने का प्लान पहले से ही तैयार कर रहा था। नोखई रंग फेंकने वालों को खूब गरियाते थे, पत्थर लेकर दौड़ा भी लेते थे, इस बार बच्चों के निशाने पर वो भी थे, कीचड़ में गिराने का प्लान बन गया था। बुकवा हर घर में लगने लगा था। बच्चे, बड़े सभी के तन बुकवा से एकदम चमक उठ रहे थे। शाम से ही जोखना भी बड़ी व्यस्त चल रही थी। पड़ोस के तीनों घरों में गुझिया बनवा कर आ गई थी, अब झूलन ददा के घर की बारी थी। उधर सभी को कामों में मशगूल देख ददा को लग गया था कि आज भोजन मिलना मुश्किल है, कारण गुझिया बनते रात के बारह भी बज सकते हैं। यही वजह थी कि ददा संझा होते ही खिचड़ी बनवाकर खा लिए थे और ओसारे में ही खटिया बिछा कर गाना-गाते जाग रहे थे, डर था कि गांव के हुल्लड़बाज लड़कवे दुआरे रखी सारी लकड़ियां ले जाकर होलिका में न झोंक दें। लदेरना सुबहिंये बोल गया था कि `ददा आज सम्हारऽ’। गुझिया भरते-भरते ही करीब ग्यारह बज चुके थे, बनते तक तो ददा जोर-जोर से खर्राटें मारने लगे थे।
वहीं चिखुरिया, हरहुआ, विमलवा और पूरी टीम बारी-बारी ददा के घर से लकड़ी ढोने पर लगे हुए थे और लगभग लकड़ी जा भी चुकी थी। अब उनके गोरुआरे के छप्पर की बारी थी और देखते ही देखते सभी लोग छप्पर भी होलिका में झोंक आए। भैंस और गाय बाहर ही खूटे में बांध गए थे। लकड़ी उठाने का काम तीन चार टीमें कर रही थीं। होलिका में लकड़ियों का अंबार लग रहा था। इधर लदेरन भी हर तरफ से फारिग हो अब अपनी टीम लिए ददा के दुआरे आ पहुंचा, देखा तो वहां कुछ था ही नहीं। छप्परववौ गायब देख ताड़ गया कि दूसरी टीम हाथ साफ कर गई है। जब उठाने को कुछ नहीं मिला तो उसे शरारत सूझ उठी। लदेरन और पूरी टीम खर्राटे भर रहे ददा को खटिया सहित उठाकर धीरे से गोरुआरे में रख गए, वही गोरुआर जहां की छप्पर भी उठा ले गई थी दूसरी टीम। जाते-जाते लदेरन ददा के मुंह, हाथ-पैर में रंगना भी लगा दिया गया था। सुबह हुई धरमा अइया के जोर-जोर से चीखने की आवाज सुनाई पड़ी। वो चिल्लाते हुए झूलन ददा के पास ही अपना दुखड़ा सुनाने आ रही थीं कि उनके दुआर से पूरी की पूरी लकड़ी गायब है। चूल्हा में लगाने को भी कुछ नहीं बचा था। आवाज सुनते ही दादी दौड़कर बाहर आई और भी लोग जुट गए थे। पूरी कहानी सुनकर सभी को दुख हुआ पर ददा और उनकी खटिया न देख दादी तो और भी दुखी हो गर्इं। सभी परेशान हो उठे और मिल कर ददा को ढूंढ़ने लगे कि अचानक भगेलू की निगाह गोरुआरे से गायब छप्पर पर जा पड़ी। वह अंदर भागा। ददा वहीं सो रहे थे। भगेलू जोर से चीख उठा। देखते ही देखते बाहर की भीड़ यहां इकट्ठा हो गई। लदेरन और उसकी टीम भी आ गई थी और मन ही मन मुस्कुरा भी रही थी कि ददा की आंख खुल गई। भीड़ इकट्ठा देख वो बमक गए। माजरे को भांपते देर न लगी कि लदेरन दिख गया। ददा एक झटके में उठे और पत्थर लिए खदेड़ लिए। बमचक मच गया गांव में, मगर मजाल कि किसी को पोल मिल सके। खैर, बात आई गई हो गई और लोग अब रंग और उमंग में डूबने को तैयार हो गए थे। धूप चढ़ने के साथ ही खुमारियां चढ़ने लगी थी। फगुआ में झूमने गाने वाले अब बढ़ते ही जा रहे थे। कोई पेट में ठूंस-ठूंसकर गोझिया तो कोई भंगिया में डूब गया था। बच्चों की टोली हाथ में पिचकारी लिए पूरे गांव भर रंगों के रंग में रंगी घूम रही थी। लाल, नीले, पीले चेहरे वाले बच्चे जब हंसते तो छन्न से जैसे मोती चमक उठते थे। शाम हुई रात आई फिर आई अगली सुबह जहां सभी चेहरों के रंग अभी भी जस के तस बरकरार थे। रंग अभी भी मन के धरातल को सराबोर किए झूम रहे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं
कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

अन्य समाचार