मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : आसान नहीं है किसान बनना

काहें बिसरा गांव : आसान नहीं है किसान बनना

पंकज तिवारी

ददा के खेत में पहुंचने और बिजली के कटने के बीच का फासला बहुत ज्यादा नहीं था। बिजली कटते ही ददा डरने लगे थे। डरते भी क्यूं नहीं आखिर किलोमीटर भर के पूरे सेवार में ददा अकेले जो थे। बांस की वैâनी, अरहर, हवा से हौले-हौले झूमते और भी पौधों को दूर से बिल्कुल अंधेरे में देखकर अच्छे-अच्छों की हालत खराब हो जाए, ऊपर से कहीं सफेद कपड़ा झूलता दिख जाए तब तो पहाड़ ही गिर जाए रे दइया। फिर ददा तो वैसे भी डरपोक ठहरे ऊपर से हवा और बांस के बीच आवाज का खेला सो अलग। इन सब जगहों की सैकड़ों कहानियां थीं जो हवा में थीं पर कहानियों पर विजय पाने वाले ददा हकीकत में डर से गए थे। धड़कन सामान्य चाल से नहीं चल रही थी। कुछ तो सिहरन सी उठी। मन ने तन को संकेत दिया। बेचारे तन को तो घबराना ही था, तन सिहर उठा ददा का कि लालटेन और लाठी ने ढांढस बंधाया- ‘ददा हम हैं न फिर किस बात का गम।’ ददा के जी में जी आया, बल मिला ददा को। वो लालटेन और लाठी को नीचे धर बाएं हाथ से अपने दाएं बाजू को ठोंकने लगे। मन पुन: मजबूत हो गया। मजाल कि अब कोई भी ददा को डरा सके। निगाह जहां तक जाती बस काली बिल्कुल काली डंसने को तैयार नागिन सी रात ही दिखाई पड़ रही थी। ददा हिम्मत तो करते पर लालटेन और लाठी पर पूरा भरोसा भी नहीं कर पा रहे थे। द्वंद में झूल रहे थे ददा। झूलते हुए बांस, आम, अमरूद की डालियां जो दिन में ददा की दोस्त होतीं पर अभी डराने का असफल प्रयास कर रही थीं। क्रोध ददा के आंखों में तैर गया पर ज्यादा बल नहीं मिल सका। ददा इत्ती रात गये अब जाते भी तो कहां? इंतजार के सिवा कोई चारा भी तो नहीं था। रेडियो चालू कर वहीं बैठ गए, कोई तो हो मन आन करने को। मुला रात को चैनल भी तो सो रहे होते थे, बस खड़खड़ की आवाज ही गूंज रही थी। बाजा बंद करना पड़ा ददा को। रेडियो सिरहाने धरे मेड़ पर ही झपकी लेने लगे थे ददा कि शांत बिल्कुल शांत जगह से जैसी आवाजें आती हैं, वैसा ही कुछ महसूस करने लगे थे। ददा पुन: उठ बैठे। सोना भी तो नहीं था यहां। बिजली पता नहीं कब आ जाए? कान के छिद्र और आंखों को बड़ा करने के प्रयास में ददा जी जान लगा दिए थे। पूरा बल अब इन्हीं दो इंद्रियों पर था कि सर्र… की आवाज हुई। जोर की खड़बड़ाहट से बौखला उठे ददा, झटके में तेज गति से आगे भागे कि धोती लाठी में उलझ गई। गिरते-गिरते बचे बेचारे ददा को जैसे किसी ने पीछे से खींच लिया हो, हाल कुछ ऐसा ही हो गया था। ददा बार-बार पैर झटकने लगे थे। लालटेन भी गिरते-गिरते बची, जुगजुगाने के बाद फिलहाल बच गई थी। अंधियारी रात में जुगजुगाती रौशनी कायम थी। ददा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थी कि बिजली आ गई। उजाला दूर तक पैâल गया, दूर भागता लेड़ियहवा दिख गया ददा को। ‘ओह! त सुदास भाइ रहेन, अबहंइ त हार्ट फेल किहे रहेन हमार’- मनइ-मन मुस्कराते हुए ददा बोल पड़े। धोती माटी-कीचा में सन सी गई थी। ददा फिर दौड़े, मशीन चलाए और खेत में आ गए। इस बार बिजली देर तक टिकी रही। खेत में पानी पौंड़ता रहा। ददा खुश हो इधर से उधर घूमते रहे। रात भर सो नहीं सके, जबकि पूरा गांव आनंद में सो रहा था। खेती-किसानी कहने को आसान होगा पर मुश्किलें कम नहीं हैं। दादी भी रात भर जागती रहीं। चाहकर भी सो नहीं सकीं। घर पर तो बिजली थी नहीं फलत: बार-बार बाहर निकलकर गड़ही उस पार झब्बर चचा के टेलीफोन वाले टावर पर लगे बल्ब को देख लेती थीं। पिछले कई बार झांकने के बाद भी बल्ब नहीं जला था पर इस बार बल्ब जगमगा रहा था। दादी का मन भी जगमगा उठा। दादी ओसारे में रखी चारपाई पर ही बैठकर खेती-किसानी के इस अनुभव को महसूस करने लगी थीं।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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