भरतकुमार सोलंकी, अर्थशिल्पी
पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से मैं अपने लेखों के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक्सपोर्ट बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देता रहा हूं। यह बात सिर्फ व्यापारिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भर राष्ट्र की परिकल्पना के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत के केंद्रीय वाणिज्य मंत्री ने हाल ही में अमेरिका दौरे से लौटकर जब उद्योगपतियों के सामने एक्सपोर्ट बढ़ाने की आवश्यकता को रखा, तो मुझे महसूस हुआ कि शायद मेरी बात अब कहीं न कहीं असर कर रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ बातें करने तक ही सीमित रहेगी या फिर जमीन पर भी कुछ ठोस कदम उठाए जाएंगे?
अमेरिका की नई ट्रंप नीति 2 अप्रैल से लागू होने वाली है। इसके प्रभाव को लेकर हमारे मीडिया चैनलों के राजनीतिक विश्लेषक यूट्यूब पर इकोनॉमिक विश्लेषण करते दिख रहे हैं। इनकी चर्चाओं में यह बात जरूर निकलती है कि हमें अपने देश को आत्मनिर्भर बनाना होगा, लेकिन आत्मनिर्भरता सिर्फ शब्दों से नहीं आती। यह तब आती है, जब हम अपने संसाधनों का सही ढंग से उपयोग करें, अपनी नीतियों में दीर्घकालिक सोच रखें और बुनियादी ढांचे को मजबूत करें।
यहां जल संग्रहण की बात आती है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन पानी के मामले में हम अब भी मानसून पर निर्भर रहते हैं। हमारे पास सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। अगर आजादी के बाद ही हमने जल संग्रहण की दिशा में पक्के बांधों का निर्माण किया होता, तो शायद आज हम पानी की कमी से जूझते न होते। अब वक्त आ गया है कि हम 500 नए पक्के बांध बनाने का संकल्प लें। ये बांध न सिर्फ हमारी कृषि को संजीवनी देंगे, बल्कि जल विद्युत उत्पादन, पशुपालन और पर्यटन जैसी आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देंगे।
क्या हमने कभी सोचा है कि जिन देशों के पास हमारे जितनी भूमि और संसाधन नहीं है, वे भी एक्सपोर्ट के मामले में हमसे आगे क्यों हैं? इसका एक बड़ा कारण है-बुनियादी ढांचे की मजबूती और संसाधनों का सही उपयोग। अगर हम अपने जल संसाधनों का सही तरीके से प्रबंधन करें, तो हमारी कृषि उत्पादकता बढ़ेगी, जो न केवल हमारे किसानों को समृद्ध बनाएगी, बल्कि हमें ग्लोबल मार्केट में एक मजबूत खिलाड़ी भी बनाएगी।
पर क्या हम वाकई इस दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं? या फिर यह सब बातें सिर्फ भाषणों और सेमिनारों तक ही सीमित रह जाएंगी? जब तक हमारी वोट देने वाली जनता जागरूक नहीं होगी और विकास के वास्तविक मुद्दों पर नेताओं से जवाबदेही नहीं मांगेगी, तब तक यह सब कल्पनाएं ही रहेंगी। गुलामी का नया स्वरूप वही होगा, जब हम बाहरी देशों के सामने झुकते रहेंगे और अपनी नीतियों को उनके हिसाब से बदलते रहेंगे।
जरूरत इस बात की है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को सही ढंग से पहचानें। आत्मनिर्भर भारत का मतलब सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं हैं, बल्कि यह हमारी संप्रभुता, हमारी पहचान और हमारी स्वाभिमान की भी बात है। अगर हम सच में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, तो हमें एक्सपोर्ट बढ़ाने के साथ-साथ अपने जल संसाधनों का सही उपयोग करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाने होंगे। 500 पक्के बांधों का निर्माण सिर्फ एक सुझाव नहीं, बल्कि हमारे भविष्य का आधार बन सकता है।
इसलिए अब वक्त है कि हम सिर्फ सुनें नहीं, बल्कि सोचें, समझें और कदम उठाएं। वरना यह सब बातें इतिहास की किताबों में एक और अधूरा सपना बनकर रह जाएंगी। क्या हम सच में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं या फिर सिर्फ इस शब्द का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए करते रहेंगे? जवाब हमारे ही हाथ में है।