क्या गलत है, क्या सही?
खुद से ही, खुद में ही, अटकी रही।
बरसों तक मन मस्तिष्क में,
इस उलझन को घसीटा है।
आज मैने, अंतर्मन के
एक द्वंद्व को जीता है ।
झरने-जंगल, धरा ये अंबर
कितना कुछ तो दिया है उसने।
फिर पिंजरा क्यों, मेरी किस्मत हो?
चाहे क्यों न रत्न जड़ित हो,
स्वर्णाभूषित कारागार के
सुख से खुद को रीता है।
आज मैने अंतर्मन के
एक द्वंद को जीता है।
नई रोशनी, नई चांदनी,
उम्मीदों की एक नई बानगी
पलों का ये सफर न जाने
कितने युगों में बीता है।
आज मैंने अंतर्मन के
एक द्वंद्व को जीता है।
-आनंद शर्मा, हिसार